Saturday, December 27, 2008

खुली तिजोरी

हमारी संस्कृति कहती है अतिथि देवो भव। मेहमानों के साथ कैसा व्‍यवहार करना चाहिये यह हमें बचपन से ही सिखाया जाता है। आजकल ब्रांड-युग में लोग घुट्टी के बारे में नहीं जानते होंगे नहीं तो कहता कि अतिथि सेवा-सम्मान हमें घुट्टी में पिलाया जाता है। ऐसे अतिथि प्रेमी देश में सैलानी या टूरिस्ट किस श्रेणी में आते हैं? मेरा अनुभव है कि टूरिस्टों की श्रेणी ही अलग है। कुछ अपवादों को छोड़ कर टूरिस्ट खुली तिजोरी की तरह होते हैं। कोई भी उन्हें लूटने का अधिकार रखता है। पर्यटक को देख कर लोगों की बॉंछें खिल जाती हैं। उनके मुँह से लार टपकने लगती है। आश्चर्य में डालनेवाली बात यह है कि टूरिस्ट बेचारा तो खैर लुटता ही है पर लूटने वाले उस पर्यटनस्थल के आकर्षण का भी कोई आदर नहीं करते हैं। होटल हों या रेस्तरॉं, दुकानदार हों या फेरीवाले, गाइड हों या ऐजेंट कोई भी उस जगह की, उसके आकर्षण की उपेक्षा ही करता है जिससे उनकी रोजी रोटी चलती है। पर्यटक हो या पर्यटन स्‍थल, बस समान भाव से लूटो। लूटने वाले अनेक। पर अनेकता में एकता की भावना रहती है लूटने के प्रति।

अभी हाल ही में किसी कार्यवश देहरादून जाना पड़ा। देहरादून तक आ ही गये हैं तो सोचा मसूरी भी घूम आयें। होटल बुक नहीं किया था। सोचा दिसंबर का महीना है वैसे ही भीड़ कम होगी। मिल जायेंगे होटल। फिर एक गेस्टहाउस का रेफरेंस अपने पास था ही।

गेस्टहाउस निकला माल रोड से बहुत दूर। हमें दो दिन तो यहाँ रहना था। फिर इतनी दूर गेस्टहाउस में रहने में आने जाने में परेशानी होगी। यही सोच कर होटल में रहने का इरादा किया। टैक्सीवाले ने पहला होटल दिखाया जो पिक्चरहाउस के पास था। होटल बाहर से तो ठीक ही लगा। पर जब कमरा देखा तो वहाँ से भाग आया। कमरे का किराया था 2500 रुपये। दिसंबर में 50 प्रतिशत डिस्काउंट। पर कमरा इतना गंदा था कि वहाँ रहने का सवाल ही नहीं उठता था। होटल के मैनेजर ने पीछे से आवाज लगाई, 'साहब आपके लिये किराया 700 रुपये कर दूँगा।' पर गंदगी से कौन समझौता करे।

टैक्सीवाला दूसरे होटल ले गया। बाहर से होटल देख कर दिल खुश हो गया। कमरा दिखाया तो ठीक ही लगा। हमें दो ही रात तो ठहरना था। हमें बताया गया कि कमरा सुपरडीलक्स है। सीजन में रेट 3000 रु है। आफसीजन में 50 परसेंट डिस्काउन्ट। डिस्काउन्ट के ऊपर 20 परसेंट रीबेट। यानी कमरा 1200रु का पड़ा।

होटल का फॉर्म भरा। सामान कमरे में रखवाया। और मसूरी बाजार घूमने निकल पड़े। माल रोड पर एक रेस्तराँ में चाय और पकौड़े का आर्डर किया। टूटी प्याली में चाय आई। पकौड़े की प्लेट गंदी। पकौड़े देखने में तो ठीक थे पर खाने में लगा बेसन में बालू मिलाया गया है। दाम वही जो टूरिस्ट के लिये होते हैं। और यह हुआ मालरोड में सुसज्जित रेस्तराँ में।

मसूरी में पालीथीन वर्जित है। पर करीब 70 प्रतिशत दुकानदार धड़ल्ले के साथ आपको सामान पालीथीन बैग में ही देते हैं, इस टिप्पणी के साथ कि साहब पालीथीन तो यहाँ वर्जित है। हमें जुर्माना लग सकता है, फिर भी (अहसान मानिये कि) हम आपको पालीथीन कैरी बैग दे रहे हैं।

घूमफिर कर, थक कर होटल का कमरा खोलते हैं तो बदबू का ऐसा झौंका कि लगा कमरे में कचरे की गाड़ी पार्क कर रखी हो। रिशेप्शन से शिकायत की तो तुरंत एक आदमी बाल्टी और फेनाइल ले कर आ गया। उसने बताया कि इस कमरे में बाथरूम से बदबू आती है। अभी सब ठीक हो जायेगा।

जब वह ठीक करके गया तो पूरा कमरा फेनाइल की बहुत ही तेज महक से महकने लगा। लगा यह महक तो रात भर में भी जाने वाली नहीं।

कमरा बदलवाया। यानी कमरा नं 103 से 105 में गये। 105 में न बदबू थी और न फेनाइल की महक। पर बाथरूम गीला और गंदा था। बिस्तर पर चादर दागदार। तकिये के खोल मैले। शिकायत की तो नये चादर भिजवाये गये, जो पहले से अधिक गंदे थे। चादर लाने वाले लड़के से पूछा,
'क्यों भैया ये चादर धुले हैं न यूँ ही तह करके रख दिये गये हैं?'
'नही साहब, चादर धुले हुये हैं। देखिये न इस कोने में, धोबी ने चादर फाड़ रखा है।'
'फटा चादर क्यों बिछा रहे हो?
'चादर ठीक है साहब, बस थोड़ा कोने में फटा है।'
'और कितने दाग हैं इसमें!'
'सफेद चादर है साहब, थोड़े बहुत दाग तो रहेंगे ही।'
इस तरह निरुत्तर हो कर हमने हथियार डाल दिये। खैर। अब जो रजाई को देखा तो बहुत ही मैली निकली।

हमने सोचा सुपरडीलक्स कमरा है। एयरकंडीशन का टेंप्रेचर बढ़ा देंगे। रजाई की आवयश्यकता नहीं पड़ेगी। अब जो गौर से देखते हैं तो कमरे में एयरकंडीशन की कोई व्यवस्था ही नहीं।

रूम हीटर मंगाया। उसका चार्ज 100 रुपये अतिरिक्त। अब जो हीटर लगाते हैं तो वह इतने कम वाटेज का निकला कि एकदम नजदीक जाओ तो ही गरमी मिल सकती है। कमरे में दो हीटर लगाने चाहे तो हमें बताया गया कि दो नहीं लग सकते, क्यों कि कमरे का फयूज उड़ जाता है।

रात में ठंड से बचने के लिये रजाई ओढ़नी ही पड़ी। तब पता चला कि रजाई में पिस्सू हैं। आधे धंटे में ही रजाई उतार फैंकी और पाँव खुजाते हुये उठ खड़े हुये। किसी तरह रात बिताई। दूसरी रात के लिये हमने माल रोड से गरम कपड़े खरीद लिये थे।

बाथ रूम की अवस्था के बारे में आप स्वयं अंदाज लगा लीजिए। मैं बताने लगूँ तो यह लेख लंबा हो जायेगा।

सुबह आठ बजे चेकआउट के समय हिसाब मुझे एक चिट पर बताया गया। मैंने बिल माँगा तो मुझसे कहा गया कि बिल चाहिये तो आपको टैक्स देना पड़ेगा। मैंने कहा आप बिल अवश्य दीजिये। बिल बनवाने में आधा घंटा समय लगा क्यों कि बिल बनाने वाले साहब सो रहे थे। उन्हें जगा कर बिल बनवाया गया।

आजकल होटलों में बिना फोटो आइडी के कमरा मिलना असंभव है, विशेष कर मुंबई की दुर्धटना के बाद। पर मसूरी के इस होटल में तो बिना बिल के ठहराया जाता है। फोटो आइडी के संबंध में उन्हें मालूम तो होगा। पर जब बिना बिल के ठहराया जाता है तो रिकार्ड रख कर अपने ऊपर मुसीबत क्यों मोल ला जाय।

मसूरी में दो दिनों के प्रवास में मैं कई और अनुभवों से गुजरा हूँ। पर कोई इतना आश्चर्य में डालनेवाला नहीं है जितना मेरा होटल के संबंध में हुआ।

मसूरी के बारे में कहा जाता है 'पहाड़ों की रानी मसूरी', 'हिलस्टेशनों की रानी मसूरी'। मुझे नहीं लगा कि वहाँ लोग दिल से मसूरी पहाड़ों की रानी मानते हैं। यह सैलानियों को भ्रम में डालने का तरीका अधिक लगता है, नहीं तो क्‍या कोई रानी के साथ दुव्‍यवहार करता है! मसूरी के साथ दासीवत् व्यवहार होता है। और टूरिस्टों के लिये तो यह अलिखित नियम लगता है कि अवसर मिला है मत चूको, जितना लूट सको लूटो।

- मथुरा कलौनी

Tuesday, December 23, 2008

ऐसे कुछ अशआर चाहिये

इधर कुंठा उधर त्रास है
आँखें वीरान मन नीराश है
डरे सहमे से दिन हैं
काली डरावनी हैं रातें
भटके हुओं को राह दिखाये
ऐसे कुछ चिराग चाहिये
सोते हुओं को जगाये
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

ऊँची दीवारें हैं खिड़कियॉं हैं तंग
निकलने के रास्‍ते हो गये हैं बंद
हताशा में है जीवन
घुट रही है मानवता
सीलन को दूर करे
ऐसी एक आग चाहिये
इस आग को हवा करें
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

दुश्‍मन तो जाना पहचाना है
यारों से कौन बचाये
खुशगवार चेहरे में
जो हैं रकाबत छिपाये
इस बार जो मौसम बदला
जाड़े ठहर गये
जमे रिश्‍ते जो पिघला दे
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

हाथों में थाम कर मशाल
बढ़ रहे हैं पुआल की ओर
ऐसे नासमझ तो न थे फिर
क्‍यों जा रहे हैं विनाश की ओर
इस बार जो हुआ है आर्तनाद
सब के सब सिहर गये
आशा की किरण दिखाये
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

मोहब्‍बत की है तुमसे
उल्‍फत की रस्‍में भी निभायेंगे
तेरे शहर में अब आये हैं
प्‍यार तो जतायेंगे
तेरी जुबान में ही सही
हमें तो बस संवाद चाहिये
मेरी बात तुम तक पहुँचे
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

चिकने पत्‍ते पर ठहरी है
जिन्‍दगी बूँद ओस की
इस बदहवासी में करें
कैसे बातें होश की
बहुत परेशान हैं हम
कसमकश है जीने की
पॉंव में छाले हैं
कुछ तो ठहराव चाहिये
घावों में मलहम लगाये
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

मुझे बारिश की बूँदें
सूरज की तपिस चाहिये
खुली हवा में सॉंस
मेरे सपनों का गॉंव चाहिये
कुँए की जगत में ठॉंव चाहिये
मुझे मेरे हिस्‍से का चॉंद चाहिये
बहुत हो चुकीं रुखसारोजमाल की बातें
अब तो बस इन्‍कलाबी अशआर चाहिये

मथुरा कलौनी

Friday, December 5, 2008

गोल्‍डक्‍लास में फैशन




मैंने जब सिनेमा देखना आरंभ किया था तो कलकत्‍ते के एक फटीचर हाल में पर्दे के एकदम सामने की टिकट पाँच आने में आती थी। स्‍कूल गोल कर कितनी पिक्‍चरें वहॉं देखी थीं! लड़कपन पार कर जब कालेज में दाखिला लिया तो अपने को अपग्रेड किया तथा बालकनी में पिक्‍चर देखना आरंभ किया। आजकल मल्‍टीप्‍लेक्‍स का जमाना है। डेढ़ सौ रुपये दे कर पिक्‍चर देखनी पड़ती है। यहॉं तक तो ठीक है। पर आज तक कोई मुझे पॉंच सौ रुपये दे कर गोल्‍डक्‍लास मल्‍टीप्‍लेक्‍स में सिनेमा देखने के लिये मजबूर नहीं कर सका। पर जब उपहार स्‍वरूप पॉच-पॉंच सौ की दो टिकटें मिलीं तो सोचा चलो यह अनुभव भी सही।

तो साहब हम भी सपत्‍नीक गोल्‍डक्‍लास में पिक्‍चर देखने पहुँचे। हाल में लोग बहुत कम थे जो स्‍वाभाविक ही है। लोग इतनी मँहंगी टिकट ले कर क्‍यों सिनेमा देखने लगे जब कि बगल के हाल में वही पिक्‍चर डेढ़ सौ रुपयों में देखी जा सकती है।

हॉल में सीटें इतनी बड़ी कि एक सीट में दो समा जॉंय। सीट में बैठना तो असंभव था। या तो आप अधलेटे बैठिये या पूरे ही लेट जाइये। सीट में कंबल भी रखा हुआ था। कई लोग तो कंबल ओढ़ कर लेट गये थे। चलो पिक्‍चर बोर हुई तो आप तीन घंटे की नींद ले सकते हैं।

अब लेट कर पर्दे की ओर देखा तो पाया कि पर्दे का निचला हिस्‍सा तो आराम से दिखता है पर पर्दे का ऊपर का हिस्‍सा देखने के लिये सिर को पीछे की ओर करना पड़ता है जो गरदन के लिये कड़ा ही कष्‍टप्रद कोंण है। हॉल की सीटें श्रीमती जी को बहुत हास्‍यास्‍पद लग रही थीं। हँसते-हँसते उनका बुरा हाल हो रहा था। पिक्‍चर समाप्‍त होने पर हमें एक दूसरे को सहारा देकर सीट से उठाना पड़ा था। वे प्रसन्‍न थीं कि चलो इस अवांछनीय अनुभव पर कम से कम टिकटों पर अपना पैसा नहीं खर्च करना पड़ा।

वहॉं हाल में ही खाने पीने की भी व्‍यवस्‍था है। हरएक सीट में एक-एक साइड टेबल लगा था जिसमें मीनू कार्ड भी रखा हुआ था। पत्‍नी से सलाहमशवरा कर दो सैंडविच और एक बोतल पानी का आर्डर दिया। हॉल के धुँधले प्रकाश में दाम ठीक से दिखे नहीं। बिल आया पॉंचसौ एकतीस रुपये! पॉंच सौ एकतीस रुपये किस बात के! न स्‍वाद, न सर्विस, न वातावरण। उनकी हँसी एक गंभीर सोचमुद्रा में बदल गई।

अब आते हैं पिक्‍चर पर। पिक्‍चर थी फैशन। हमदोनों को पिक्‍चर बहुत पसंद आई। चलो कम से कम पिक्‍चर अच्‍छी लगी। शाम पूरी बेकार नहीं गई। पिक्‍चर अच्‍छी तो थी पर एक बात कहना चाहूँगा कि पूरी पिक्‍चर में कई सीन ऐसे थे जिनमें युवतियॉं बहुत कम वस्‍त्रों में रैंप पर इठला रही थीं। और लगभग पूरी पिक्‍चर में कैमरे का फोकस नीचे ही रहा था। अब आप अंदाज लगा सकते हैं कि मैं कैसे अनुभव से गुजरा। सीट में अधलेटा बैठने के बाद वैसे ही पर्दे के ऊपरी भाग को देखने में कष्‍ट हो रहा था ऊपर से पूरी पिक्‍चर में कैमरे का लो-ऐंगल! नहीं-नहीं मैं आपत्ति नहीं कर रहा हूँ मैं तो केवल अपना अनुभव आपके साथ बॉंट रहा हूँ।

Sunday, October 12, 2008

मोहनी मूरत

प्रिया में वे सभी गुण थे जो एक ऑफिस एसिस्टेंट के पद के लिए आवश्यक होते हैं। मोहिनी मूरत और सोहिनी सूरत। प्रचुर मेधा। सभी कुछ ठीक-ठाक और सुंदर। रिक्त पद के लिए उसका चयन हो गया।

सच बोलूँ तो मैं नहीं चाहता था कि ऑफिस एसिस्टेंट के पद के लिए प्रिया का चयन हो। मेरे लंबे अनुभव ने मुझे सिखाया है कि यदि कोई कन्या आपकी अधीनस्थ हो और प्रिया जैसी संघातिक रूपवती हो, तो वह अपने रूप के दंभ में इस तरह लिप्त होती है कि अंग्रजी में 'पेन इन दि नेक' यानी गर्दन का दर्द और हिंदी में सिर का दर्द साबित होती है। परंतु मेरा सौभाग्य कि प्रिया के संबंध में मेरे भय एकदम व्यर्थ सिद्ध हुए। वह एक आडंबर विहीन, परिश्रमी और कार्यकुशल लड़की निकली। हम कभी कितना गलत सोचते हैं।

एक दिन प्रिया एक विचित्र अनुरोध ले कर मेरे पास आई। वह ऑफिस के लेडीज टॉयलेट में एक फुल-लेन्थ आईना चाहती थी। पहले तो मुझे समझ में ही नहीं आया कि वह क्या चाहती है। जब समझ में आया तो विश्वास नहीं हुआ। यानी एक ऑफिस में पूरे शरीर को दर्शाने वाला आईना किसने देखा-सुना है। मैंने हंस कर उससे कहा कि वह पूरे आईने को भूल जाए और वाश बेसिन के ऊपर जो छोटा आईना है उसी से काम चलाए। मैं अधिक-से-अधिक उसे एक छोटा स्टूल दे सकता था, जिस पर खड़े हो कर वह वाश बेसिन के ऊपर लगे आईने में स्वयं को इंस्टालमेंट में देख सकती थी। जब मैंने उससे ऐसा कहा तो मेरे इस सरल परिहास पर उसे हँसी नहीं आई। पर अपना आईना वह भूली नहीं। उसने एक जिद सी पकड़ ली थी। उसे जब भी अवसर मिलता वह आईना माँगना नहीं भूलती।

उसके बार-बार माँगने से मैं इस तरह द्रवित हो गया था कि यदि मैं कहीं का राजा होता तो खुशी-खुशी अपना आधा राज्य उसे दे देता। मैंने बड़ी मुश्किल से उसे विश्वास दिलाया कि ऑफिस में लेडीज टॉयलेट में फुल-लेन्थ आईना लगवाना मेरे अधिकार क्षेत्र के बाहर है। अब वह यह अनुरोध करने लगी कि मैं मैनेजर के पास जाऊँ।

'असंभव।' मैंने कहा, ' अपनी बाल-प्वाइंट पेन के लिए जब भी नए रीफिल की आवश्यकता पड़ती है, मुझे उसे पुराना इस्तेमाल किया हुआ रीफिल दिखना पड़ता है, तक जा कर वह नया रीफिल सेंक्शन करता है। हमारा मैनेजर इस कदर कंजूस है। अब मैं उससे टॉयलेट में पूरे आईने की बात करूँ तो शायद उसकी हृदयगति ही रुक जाय।'

मेरी बात पर प्रिया को विश्वास नहीं हुआ। उसने मुझसे पूछा, ' मैं जाऊँ मैनेजर के पास।'

उसका ऐसा कहना मुझे कहीं छू गया। यह उसकी अच्छी प्रकृति थी कि उसने पहले मुझसे पूछा। नहीं तो उसकी जैसी मोहिनी-मूरत-सोहिनी-सूरत-लड़कियाँ सीधे चेयरमैन के ऑफिस में जा सकती हैं। एक अदना मैनेजर की क्या बिसात?

पर मैं अपने मैनेजर को अच्छी तरह जानता था। उसके जैसा शुष्क प्रकृति वाला व्यक्ति शायद ही कहीं हो। उसमें रस के नाम पर था रेगिस्तान ही रेगिस्तान। प्रिया की सोहनी सूरत से वह नहीं प्रभावित होने वाला था।

'उससे छह आईनों के लिए कहना।' मैंने राय दी।
'छह क्यों, मुझे तो केवल एक चाहिए।' प्रिया ने कहा। मुझे मालूम था कि वह ऐसा ही कहेगी।

'इस ऑफिस में यदि किसी एक वस्तु की आवश्यकता होती है तो छह माँगनी पड़ती हैं। मुझे मालूम है, मैनेजर के खानदान में मोल-भाव करने की बड़ी पुरानी परंपरा है। मेरी मानो, छह माँगना। यदि उसका मूड ठीक रहा तो शायद तुम्हें एक आईना सेंक्शन कर दे। गुड लक!' मैंने कहा।

प्रिया मैनेजर के कमरे में गई और पाँच मिनटों में बाहर आ गई। उसके चेहरे के भाव देख कर मैं समझ गया कि उसे सफलता नहीं मिली। मुझे उसके ऊपर अपार दया आई। भगवान ने उसे इतनी मोहिनी सूरत दी है, पर क्या फायदा? इतिहास साक्षी है कि अच्छी सूरत के कारण लोग राजपाट छोड़ देते हैं। पर यहाँ एक कंजूस मैनेजर की मुट्ठी से प्रिया एक साधारण आईना नहीं छुड़ा पाई। भले ही उसमें रूप का दंभ न हो पर उसके स्वाभिमान को तो ठेस पहुँचनी ही थी।

'यह क्या हो गया है, मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा है।' उसने खोए हुए अंदाज में कहा।

'टेक इट ईजी प्रिया! तुम चिंता न करो। मैं कुछ-न-कुछ करूँगा तुम्हारे आईने के लिए।' मैंने उसे दिलासा देने का प्रयत्न किया।

'तुम समझ नहीं रहे हो। मैनेजर ने मुझे छह आईने सेंक्शन कर दिए हैं।' प्रिया ने कहा।

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Wednesday, October 1, 2008

क्‍या पता मेरा डिप्रेशन लौट आये !

1
रिटायर होने के बाद मैंने देखा कि लोग आपके स्वास्थ्य के प्रति बहुत उत्सुक हो जाते हैं। जब भी कोई मिलता है या जब किसी से फोन में बात होती है तो जरूर पूछता है कि आपका स्वास्थ्य कैसा है। यह बात मैंने अपने एक मित्र से कही जो रिटायरमेंट में मुझसे काफी सीनियर हैं, तो उन्होने मुझे हिदायत दी, खबरदार अपने आफिस कभी मत जाना। वहाँ लोग तुम्हारे स्वास्थ्य के बारे में तो पूछेंगे ही, पर प्रच्छन्न और परोक्ष रूप में आश्चर्य करेंगे कि तुम अभी तक जीवित हो। तुम्हारा स्वास्थ्य अभी तक अच्छा है! यह सब हुआ कैसे?
मैंने उनकी बात सुन तो ली पर विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी कहीं होता है! जिनके साथ जीवन के बेहतरीन साल निकाले, ऊँच नीच में साथ रहे, जिंदादिल पाटिर्र्यों का आनंद उठाया, वे आफिस में व्यस्तता के कारण भले ही आपको उचित समय नहीं दे पायें, पर आपके बारे यह सोचें कि आप जिंदा कैसे हैं... नहीं नहीं कभी नहीं।
परसों मैं अपने पुराने आफिस गया था।

2
सोचा था रिटायरमेंट के बाद दुनिया घूमेंगे। जहाँ कभी अकेले गए थे वहाँ सपत्नीक जाएँगे। यार दोस्तों के बुलावे भी आ ही रहे हैं। अक्टूबर का महीना चुना विदेश जाने के लिए। पर हा भाग्य!
रिटायरमेंट के बाद मैंने बुद्धिमानी यह की थी कि बहुत सारा पैसा शेयर मार्केट में लगा दिया। कल खबर आई कि सेंसेक्स 40 प्रतिशत नीचे है और 30 प्रतिशत और नीचे जाने की संभावना है।

3
सोचा और कुछ संभव नहीं तो नाटक करेंगे। पिछला नाटक जून में किया था। अब समय आ गया है नए नाटक का। हिन्दी में नए नाटकों अभाव है यह तो मालूम था। स्थिति इतनी दयनीय है, यह तब पता चला जब मैंने सभी नाटक छान मारे और अपने मतलब का कोई नहीं मिला। नया नाटक लिखने का उत्साह नहीं पा रहा हूँ। अत: नए नाटक का मंचन अनिश्चित काल के लिए स्थगित करना पड़ रहा है।

4
2 अक्टूबर से देश में नया कानून आ रहा है जिसके तहत धूम्रपान में कठोर प्रतिबंध लगेगा। सड़क छोड़ कर सब जगह धूम्रपान निषिद्ध होगा। मैं अपने प्रिय पब में अपने प्रिय पेय के साथ अपनी प्रिय सिगरेट नहीं सुलगा पाऊँगा।


ऐसे ही एक दो और कारण हैं जिनके सामूहिक प्रभाव से मुझे कल कुछ गंभीर प्रकार का डिप्रेशन हो गया था। नैराश्य के अंधकार में गिरता चला गया था। कुछ करने को दिल ही नहीं कर रहा था। इस गहन नैराश्य से बाहर निकलने के लिए कुछ यार दोस्तों को फोन किया।
दिल्ली वाले ने कहा, "अबे काहे का डिप्रेशन। अगली फ्लाइट पकड़ कर दिल्ली आ जा। तेरा डिप्रेशन दूर कर दूँगा।"

यह तो सही है कि जब तक उसके साथ रहूँगा डिप्रेशन पास भी नहीं फटकेगा पर जब मैंने आने जाने के खर्चे का हिसाब लगाया तो डर लगा कि कहीं दिल्ली से आने बाद डबल डिप्रेशन न हो जाय।

कलकत्ते वाले ने अच्छी राय दी। "तुमने इतने शौक कसे ड्रिंक्स कैबिनेट बनवाई किसलिये थी। बस उसे खोल कर सामने बैठ जा। फिर देख डिप्रेशन दुम दबा कर कैसे भागता है।"

यह राय मुझे जँच गई। मैंने बोतल निकाली तो पत्नी ने आवाज दी क्या आज दोपहर से ही चालू हो रहे हो?
मैंने कहा कि मेरे दोस्त ने यही राय दी है क्यों कि आज मुझे डिप्रशन है।

"तुमको डिप्रेशन है?" पत्नी ने कहा। जो शब्दों में नहीं कहा और चेहरे के भाव से दर्शाया वह था "खबरदार मेरे पास मत आना। नहीं तो मुझे भी डिप्रेशन हो जाएगा।"

जब भी मैं अपनी पत्नी को अपनी व्यथा कथा सुनाता हूँ तो वे मुझसे भी अधिक डिप्रेश हो जाती हैंं। अब जब कभी मुझे भारी-भरकम टाइप का डिप्रशन होता हे वे मेरे पास नहीं फटकती हैं। इस बार तो वे अपनी सहेली का जन्मदिन मनाने चली गईं। शाम को जब लौटीं तो मेरा डिप्रेशन तो वैसा ही था पर अब वह 'रायल चैलेंज' में तैर रहा था। शाम को मैं जल्दी 'सो' गया। आज सुबह देर से तीन मन भारी सिर ले कर उठा।

कार्पोरेट दिनों की याद स्वरूप 'रेमी मार्टिन' बची हुई थी। उसका सेवन कर इस लायक हुआ कि यह व्लॉग लिख सकूँ। डिप्रेशन का तो पता नहीं क्या हुआ। थोड़ी देर में जब 'रायल चैलेंज' और 'रेमी मार्टिन' का असर कम होगा तब पता चलेगा। क्या पता डिप्रेशन लौटे न लौटे।

Tuesday, September 23, 2008

कैले बजै मुरूली







उत्तराखंड का नाम लेते ही मन में कई चित्र उभरते हैं। एक बार याद करने लगें तो उन चित्रों में मन ऐसा रमता है कि
सारी दुनिया को भुला बैठे
हम अपने पहाड़ को याद कर बैठे।

क्यों न हो हमारा पहाड़ है ही ऐया। जाड़ों की ठिठुरती सर्दी में जब चारों ओर फुसरपट्ट (बर्फ की सफेद चादर) होती है तब
लिहाफ के अंदर ठंडी अंगुलियॉं छुआने की शैतानी या सग्गड़ में सुलगते उपलों की गर्मी का जिसने अनुभव किया हो वही जान सकता है सही मानों में पहाड़ी होने का अर्थ। बिना अल्मोड़ा गये अल्मोड़ा के बारे में अनुमान कितना सही हो सकता है वह इस कहावत से विदित होता है -
न गये अल्मोड़ा, ना लाग्या गजमोड़ा

जब याद आती है उत्तराखंड की, जब निसास लगता है तो मन कैसा जो हो जाता है।

उत्तराखंड
हिमालय के ललाट पर तिलक है।
देवताओं की क्रीड़ास्थली है, देवभूमि है।

मंदिरों का देश है। मुनियों की तपोभूमि है।
भरत की जन्मभूमि है। कन्व का आश्रम है।

पांडवों का अज्ञातवास है।
संजीवनी बूटी है, च्यवनप्रास है।

सुमित्रानंदन का पल्लव है।
कालिदास की उड़ान है।


यहॉं ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं और महेश हैं।
अंतहीन सीढ़ीदार खेत हैं।
अल्हड़ पहाड़ी नदियॉं हैं।
तीखी धार पर घास काटती युवतियॉं हैं।



बुरूँस के फूल हैं। देवदार और चीड़ के पेड़ हैं
काफल, हिसालू, किलमोड़ी हैं। जंगली मेल हैं।

गाड़-गोध्यारों में लुकाछिपी का खेल है।
नानतिनों का नानतिन्योल है। (बच्चों के खेल)

डाड़े में बिरहन का गीत है।
धाध देती बौजी है।
मंदिरों की घंटियॉं हैं
होली की मदमस्त बैठकें हैं।

रायता है, आलू के गुटके हैं।
भांग की चटनी है, भुटुवा साग है।

चौमास के वन हैं, हिमाच्छादित चोटियॉं हैं।
लुभावनी पगडंडियॉं हैं। ओढ्यार हैं।
गढ़वाल है, कुमाऊँ है, भाभर है।

हुड़के की थाप है, छलियों की भास है।
कठिन जीवन है, सरल हास है।

बाब्बा हो, कितनास बड़ा कैनवास है।

Wednesday, September 17, 2008

पाराशर जी की पीड़ा

कनाडा से पाराशर गौर जी ने यह कविता भेजी है। ज्‍यों की त्‍यों यहॉं रख रहा हूँ।

पाराशर जी संवेदनशील व्‍यक्‍ति हैं तथा दिल से लिखते हैं।

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ये कविता उनको समर्पित जो देहली के धमाको मारे गए या ज़ख्मे हुए !
पीड़ा
आज की शाम
वो शाम न थी
जिसके आगोश में अपने पराये
हँसते खेलते बाँटते थे अपना अमनोचैन
दुःख दर्द , कल के सपने
घर की दहलीज़ पर देती दस्तक
आज की सांझ , ओ सांझ न थी ... आज की

दूर छितिज पर ढलती लालिमा
आज सिंदूरी रंग की अपेक्षा
कुछ ज्यादा ही गाढ़ी लाल देखाई दे रही थी
उस के इस रंग में बदनीयती की बू आ रही थी
जो अहसास दिला रही थी
दिन के कत्ल होने का
आज की फिजा , ओ फिजा न थी .... आज की शाम

चौक से जाती गलियॉं
उदास थीं ...
गुजरता मोड़ ,
गुमसुम था
खेत की मेंड भी
गमगीन थी
शहर का कुत्ता भी चुप था
ये शहर , आज वो शहर न था ... आज की शाम

धमाकों के साथ चीखते स्वर
साहरो की तलाश में भटकते
लहू में सने हाथ ......
अफरा तफरी में भागते गिरते लोग
ये रौनकी बाजार पल में शमसान बनगया
यहाँ पर पहिले एसा मौहोल तो कभी न था
ये क्या होगया ? किसके नजर लग गयी ... आज की शाम

बर्षो साथ रहने का वायदा
पल में टूटा
कभी न जुदा होनेवाला हाथ
हाथ छुटा
सपनो की लड़ी बिखरी
सपना टूटा
देखते देखते भाई से बिछुड़ी बहिना
बाप से जुदा हुआ बेटा
कई माँ की गोदे होई खाली
कई शुहगुना का सिन्दूर लुटा
शान्ति के इस शहर में किसने ये आग लगा ई
ये कौन है ? मुझे भी तो बताऊ भाई ... आज

पराशर गौर
कनाडा १५ सितम्बर २००८ शाम ४ बजे

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Wednesday, September 10, 2008

एकदम ब्रिलियंट


सर न्यूटन के सर में सेब गिरा था तो उनके ज्ञानचक्षु खुले और उन्होंने हमें गुरुत्वाकर्षण के बारे में बताया था। मुंगेर में आम के बाग में टहलते हुए मेरे सिर में एक पका आम गिरा था। मैं ज्ञान चंक्षु के बारे में तो नही कह सकता हॉं मेरे भौतिक चक्षु एक क्षण के लिए बंद हो गए थे। उस क्षण में मेरी क्षुधा जाग्रित हुई और ऑख खुलते ही मैं उस आम को खा गया। यह प्रकरण इसलिए याद आया कि अभी एक ऐसी चीज मेरी झोली में गिरी है जिसको मैं खा नहीं सकता। अब उसका क्या करूँ।

~nm ने Brilliante Weblog award मेरी झोली में डाला है। मैं उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने मेरे ब्लॉग को इस योग्य समझा। अवार्ड मिलने की प्रसन्नता तो है ही, साथ ही यह जान कर सुखद आश्चर्य हुआ कि अवार्ड के साथ नियमवाली भी है जिसमें यह बताया गया हे कि अवार्ड मिलने पर क्या करना है। मुलाहजा फरमाइये

"The Brilliant Weblog Award- a prize given to sites and blogs that are smart and brilliant both in their content and their design. The purpose of the prize is to promote as many blogs as possible in the blogosphere.

Here are the rules to follow:
When you receive the prize you must write a post showing it, together with the name of who has given it to you, and link back to them.

Choose a minimum of 7 blogs (or even more) that you find brilliant in content or design.

Show their names and links and leave them a comment informing them that they have been awarded with the ‘Brilliant Weblog’ award.

Show a picture of those who awarded you and those you give the prize (optional) to.

And the award goes to:

उडन तश्तरी
यह ब्‍लॉग समीर जी का है जो एक पहुँचे हुए लेखक हैं। लेखनी में धार ऐसी कि कब क्‍या छील लें पता ही नहीं चलेगा।

काव्‍यकला
सुलझे हुए वाक्‍य और काव्‍य पंक्‍तियॉं। दुरूहता का दूर दूर तक नामोनिशॉं नहीं।

ननिहाल
हिन्‍दी वर्णमाला सीखने-सिखाने के लिये बहुत ही रोचक विधि ।

दिल की बात
एक डॉक्‍टर के हृदयोद्गार।

मानसिक हलचल
विविध विषयों पर ज्ञानदत्त पाण्डेय का रोचक ब्लॉग| ब्‍लॉगनारा है - अटको मत। चलते चलो।

सब का मालिक एक है
संवेदनशील मुद्दों पर विचार विमर्श

Life and other such nonsense
यह व्‍लॉग अँग्रेजी में है। आप किसी भी मन:स्‍थिति में हों, यह ब्‍लॉग पढिए होंठों पर स्‍मितरेखा बरबस खिंच जायेगी।

Monday, September 1, 2008

टोपी

अपनी एक पृथक पहचान बनाने की इच्छा सब में होती है, क्या छोटे, क्या बड़े। मूल में शायद यही कारण रहा हो जब मैं बचपन में निरामिष होकर गाँधी टोपी पहनने लगा था। वैसे सच कहूँ तो गाँधी जी और अनके आदर्शों का प्रभाव तो था ही ।

उन दिनों मेरी उस टोपी से घर में माँ-बाप बहुत परेशान हो गए थे। मेरी मित्र मंडली को एक नया खेल मिल गया था कि किस तरह मेरी टोपी उड़ाई जाय। मेरे शिक्षकगण मेरी टोपी को देख कर ऐसा मुँह बनाते थे जैसे अम्ल की खट्टी डकार आई हो।

मुझे तरह-तरह से उकसाया जाने लगा कि बेटे यह क्या टोपी पहनते हो ! इसका रिवाज नहीं है आजकल। या, बेटे देखो माँ को कितना कष्ट होता है जब घर में सामिष भोजन बनता है। तुम्हारे लिए अलग से खाना बनाना पड़ता है।

मुझे स्थिति विडंबनापूर्ण लगी थी। एक ओर तो हमें स्कूल इसलिए भेजा जाता था कि हम गाँधी नेहरु की तरह महान बनें। दूसरी ओर गाँधी जी से प्रभावित हो कर एक छोटा सा कदम उस दिशा में क्या रख दिया बस सभी रास्ते में रोड़े अटकाने लगे थे।

या तो गाँधी जी का प्रभाव मेरे ऊपर अधिक था या मैं बहुत जिद्दी था, क्यों कि न मैंने टोपी पहनना छोड़ा और न ही अपने आहार में परिवर्तन किया। मुझे ले कर मेरे माँ-बाप के चेहरे चिंतित रहने लगे थे। उनकी कानाफूसी बढ़ गई थी।
अध्यापक एक दूसरे को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखते रहे और सहपाठीगण षड़यंत्र रचते रहे पर गाँधी टोपी मेरे सिर के ऊपर चिपकी रही।

मैं अपने गणित के अध्यापक को बहुत मानता था। एक वे ही थे जो मेरी टोपी को देख कर अपना मुँह विकृत नहीं करते थे। इन्ही अध्यापक की कक्षा में एक दिन एक लड़के ने पीछे से आकर मेरे सिर से टोपी उठाई और ब्लैकबोर्ड के पास फैंक दी। पूरी कक्षा हो हो कर हँसने लगी थी। अध्यापक ने मेरी टोपी की ओर देखा और फिर मेरी ओर देखा और मुसकुराने लगे। मेरे आश्चर्य का पारावार नहीं। मैंने कहा, 'सर, आप...'

'मैं अगर तुम्हारा सहपाठी होता तो तुम्हारी टोपी कभी की उड़ा देता।' उन्होने कहा था।

उनकी यह बात मुझे कहीं गहरे कोंच गई। मैंने टोपी त्याग दी। निरामिष से सामिष हो गया। समय ने घाव तो भर दिया है पर अभी तक सरसराता है।

बचपन की इस घटना से मुझे टोपी कॉम्प्लेक्स हो गया है। हैट हो या कैप, टोप हो या टोपी सभी प्रकार की टोपियों को देख कर मेरा दिल ललचाता है। काश मैं ये सब बेझिझक पहन पाता! इतिहास की पुस्तकों में जब मैं सभी महान सिरों को किसी ने किसी प्रकार की टोपी के अंदर पाता हूँ तो मेरे दिल में एक मुक्का लगता है।

अभी कुछ दिन पहले टोपी को लेकर मेरे साथ एक और वाकया हुआ है। जाड़ों में ठंड से मेरी नाक बंद हो जा रही थी। इलाज मुझे मालूम था, यानी सिर को ढक कर रखना। उसके लिए आवश्यकता थी एक टोपी की। तो एक दिन साहस करके ऊन की एक मंकी कैप ले ही आया। इरादा था केवल रात को पहनने का क्योंकि रात को कौन देखता है। वैसे भी सिर ढकने की अधिक आवश्यकता रात को ही होती है। पत्नी के सामने टोपी पहनने का तो खैर प्रश्न ही नहीं उठता है। जब पत्नी सो गई तो मैं आधी रात में चुपके से उठा और टोपी निकाल कर पहन ली। कितनी तृप्ति हुई मुझे। कितना आराम आया। बहुत देर तक यूँ ही बैठा रहा और इस नई अनुभूति का आनंद लेता रहा। फिर उस ठंडी रात में सिर में गर्माहट लिए मैं सो गया।

आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी यह हिमाकत मेरे लिए कितनी महंगी पड़ी। जब किस्मत ही खराब हो तो आप क्या कर सकते हैं। साधारणतया गहन निद्रा में सोनेवाली पत्नी को उस दिन आधी रात में उठना ही था। वह इतनी जोर से चिल्लाई थी कि मेरे बाएँ कान में गूँज अभी तक बाकी है। पड़ोसी तक आ गए थे।

वो दिन है और आज का दिन है, मैं अपनी टोपी पहनने की इच्छा को दबाये जिए जा रहा हूँ। काश मैं विलायत में पैदा होता। वे लोग टोपी के माहात्म्य से अच्छी तरह परिचित हैं। सोने के लिए ऊनी तिकोनी टोपी से लेकर नहाने के लिए बेदिंग कैप तक, प्रत्येक अवसर के लिए टोपियाँ निर्धारित हैं। और हमारे यहाँ! हमारे यहाँ कलियुग इतना घोर हो गया है कि टोपी पहनना और टोपी पहनाना, इनका अर्थ ही बदल गया है।

मथुरा कलौनी

Sunday, August 24, 2008

'घर की मुर्गी दाल बराबर'

चंद्रकान्ता के बारे में लोगों को याद आता है कि इस नाम का एक टीवी सीरियल आया था। बहुतों को मालूम है कि इस नाम की एक किताब भी है। पर गिनेचुने ही मिलेंगे जिन्होंने इसे पढ़ा है।

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि चंद्रकान्ता, चंद्रकान्ता संतति, भूतनाथ, रोहासमठ एक ही कहानी शृंखला की पुस्तके हैं।

चंद्रकान्ता संतति में एक ऐसी कटार का उल्लेख है जिसके कब्जे को दबाने से चकाचौंध करने वाली रोशनी निकलती है। इस कटार का आविष्कार लेखक देवकीनंदन खत्री ने सन 1890 के आसपास किया था। Star Trek की विद्युत तलवार तो 80 - 90 साल बाद आई।

इतना ही नहीं कटार को छूने से बदन में बिजली की तरंग दौड़ जाती है तथा छूनेवाला बेहोश हो जाता है। इस असर का काट एक अंगूठी में होता है। अंगूठी पहन कर ही कोई कटार को हाथ में ले सकता है। कहीं कोई कटार और अंगूठी छीन ले इस डर से कहानी की खलनायिका आपना जंघा काट कर उसमें अंगूठी छिपा देती है।

मुझे यह कहानी इस लिये याद आई कि अभी हाल ही में बदन में चिप embed करने की तरकीब के बारे में पढ़ा था। तरकीब तो अब निकली है पर इसकी कल्पना देवकीनंदन खत्री जी ने सौ साल पहले ही कर ली थी।

अफसोस हाता है कि हम अपनी सोच, अपनी धरोहर, अपनी परंपरा को उतना महत् नहीं देते हैं। हैरी पॉटर खरीदने के लिये एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं चंद्रकान्ता के बारे में जानने तक का प्रयास नहीं करते।
यह हमारे देश की ही कहावत है 'घर की मुर्गी दाल बराबर'

जब भूतनाथ जैसे रहस्यमय पात्र से मिलेंगे तो आपको स्वयं अपने ऊपर आश्चर्य होगा कि मैं अब तक क्या कर रहा था।

Wednesday, August 13, 2008

युद्धभूमि

कल यहाँ युद्ध का उन्माद था
आज लाशों की सड़ाँध
ले कर आया नया प्रभात है
अब यहाँ कोई नहीं आयेगा
यहाँ न तोपों की गर्जन है
न ही कैमरे और न बरखा दत्त है

चुके हुये युद्ध में कौन रुचि दिखाता है
एक नये युद्ध की खोज में आज का संवाददाता है।

इस युद्धभूमि में एक बार फिर
मनभावन हरियाली छायेगी
खेत लहलहायेंगे
और प्रतीक्षा करेंगे
एक नये उन्माद की
एक नये विनाश की

वही धरती है वही आसमान
क्षितिज सिमटता जा रहा है
रुदन और क्रंदन ही जीवन स्पंदन
बनता जा रहा है

कौन करेगा शांति नृत्य
कौन पहनेगा पायल
अब बचा ही है कौन
जिसके पाँव नहीं हों घायल

-मथुरा कलौनी

Saturday, August 2, 2008

कहॉं कमी रह गई?

मेरे एक कोरियन मित्र हैं। नाम है री।
अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मलनों में उनसे मुठभेड़ होती रहती है। मुझे देखते ही वे तपाक से बालते हैं
हल्‍लो मिस्‍टर कलौनी
मैं बोलता हूँ हल्‍लो मिस्‍टर री
वे बालते हैं हाउ आर यू
मैं बोलता हूँ हाउ आर यू

इससे आगे मैं कुछ भी पूछूँ, उत्‍तर में वे बड़ी प्‍यारी सी मुसकान बिखेर देते हैं। क्‍यों कि इससे आगे वे अँग्रेजी में नहीं बोल पाते। कोरिया इतना उन्‍नत देश है पर वहॉं के लोग अँग्रेजी नहीं बोल पाते। हमें देखो हम अँग्रेजों से अच्‍छी अँग्रेजी बोलते हैं।

उत्‍तरप्रदेश के शहर सहारनपुर के एक होटल में एक बार मैंने रिशेप्‍शन में फोन कर अपने कमरे में एक बीयर भेजने के लिये कहा। रिशेप्‍शन की लड़की ने कहा,
सौरी सर हम बीयर 'प्रोभाइड' नहीं कर पायेंगे।

उसके 'प्रोभाइड' शब्‍द के प्रयोग पर मन प्रसन्‍न हो गया था। लगा था, हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। देश का भविष्‍य सुरक्षित है। इस विशुद्ध हिन्‍दी घाटी में जब अँग्रेजी के 'प्रोभाइड' जैसे शब्‍द का प्रयोग इतना आम है तो देश के भविष्‍य के बारे में चिंता करना व्‍यर्थ है।

पहली बार जब विलायत गया था तो मैंने पाया कि अँग्रेज अँग्रेजी कर उच्‍चारण ठीक से नहीं करते। अँग्रेजों का अँग्रेजी ज्ञान भारतीयों की तुलना में उन्‍नीस ही पड़ता है। अँग्रजों की अँग्रजी पर अमेरिकन छा गई है। शायद यही कारण है कि अँग्रेज अब उतनी तरक्‍की नहीं कर रहे हैं।
पर हमारी अँग्रजी अभी तक प्‍योर है। वैसी ही जैसी अँग्रेज छोड़ कर गये थे।

वैसे देखा जाय तो इंगलैण्‍ड और अमेरिका का भी भविष्‍य उज्‍वल है। क्‍यों न हो वहॉं प्राय: सभी बच्‍चे अँग्रेजी में ही बोलते हैं। हमारे भारत में अभी तक यह स्‍थिति नहीं आई है। यहॉं आज भी कई स्‍कूल ऐसे है, विशेष कर राजकीय विद्यालय जो आरंभिक शिक्षा प्रांतीय भाषा में ही देते हैं। मुझे उम्‍मीद है कि बहुत शीघ्र ही स्‍थिति में सुधार हो जायेगा। हॉं संभ्रांत परिवारों की बात अलग है। उत्‍तराखण्‍ड से लेकर उत्‍तर कन्‍नड़ तक संभ्रांत परिवार के बच्‍चे आरंभिक शिक्षा अँग्रेजी में ही लेते हैं।

कभी कभी मन में शंका भी होती है कि कोरिया जापान जैसे देश जो दुनिया भर में छाये हुये हैं, बिना अँग्रेजी के कैसे इतनी तरक्‍की कर गये! वहॉं के लोग अँग्रजी के हैव-नो-हैव जैसे दो चार शब्‍दों से ही काम चला लेते हैं। हमारे देश में बेंत मार-मार कर अँग्रेजी सिखाई जाती है। हम अँग्रजों से अच्‍छी अँग्रजी बोल लेते हैं। पर पता नहीं कहॉं कमी रह गई?

Saturday, July 19, 2008

उत्तराखण्ड में टनकपुर से पिथैरागढ़ की यात्रा

उत्तराखण्ड में टनकपुर से पिथैरागढ़ की यात्रा

पिथौरागढ़ जाने के लिए अंतिम रेलवे स्टेशन टनकपुर से आगे पहाड़ी मार्ग पर बस से यात्रा करनी पड़ती है। बस का मार्ग एक विशेष वैज्ञानिक ढंग से बनाया गया है तथा इसमें चलनेवाली बसें भी विशेष पद्धति से चुनी जाती हैं। प्रयत्न यही रहता है कि बस अधिक से अधिक हिचकोले खाए, प्रत्येक हिचकोले में वह अपने चारों पहियों में लड़खड़ाए और इसके सभी अंग खड़खड़ाएँ। इस प्रकार पिथौरागढ़ आने वाले यात्रियों को मार्ग ओर बसों की सहायता से अच्छी तरह हिलाया, कँपाया, उछाला और अधमरा बनाया जाता है ताकि वे पिथौरागढ़ में प्रवेश करने योग्य हो सकें। इसके बाद प्रवेश-कर के रूप इस महत्वपूर्ण कार्य का सामान्य पारिश्रमिक देने के बाद ही यात्री पिथौरागढ़ में प्रवेश कर पाते हैं।


पुण्य कमाने, किसी पाप का प्रायश्चित करने या अपना चरित्र सुधारने के लिए लोग कैलाश पर्वत तक की यात्रा करते हैं। पिथौरागढ़ कैलाश जाने के रास्ते में ही पड़ता है। कई बार देखा गया है कि टनकपुर से बस से पिथौरागढ़ पहुँचते-पहुँचते कैलाश यात्री अपने चरित्र में इतना सुधार पा लेते हैं कि उन्हें कैलाश जाने के आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वे पिथौरागढ़ से ही वापस लौट पड़ते हैं।

Sunday, July 13, 2008

शब्दशिल्पी हूँ मैं

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जन्‍मशती पर बंगलौर में आयोजित एक संगोष्‍ठी में जाने का अवसर मिला। संगोष्‍ठी में वक्‍ताओं से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवनदर्शन और उनकी रचनाओं पर विमर्श सुन कर मैं कुछ अंतर्मुखी हो गया और यह कविता बन पड़ी -

शब्दशिल्पी हूँ मैं
शब्दों को सँवार कर सुंदर बना दिया है मैंने
शब्दों के पारखी हैं आप बोली लगाइये
शब्दों को बाजार में खड़ा कर दिया है


शब्दशिल्पी हूँ मैं
शब्द मंडराते हैं मेरे मन मस्तिष्क पर
सुनामी के कगार पर रेत का किला
ऐसा ही कुछ तो निरर्थक रच दिया है मेंने


शब्दशिल्पी हूँ मैं
पर शब्दों के जाल में स्वयं उलझ गया हूँ
आज बदला है परिवेश, बदल गये अर्थ हैं
निस्प्राण हैं रचनाएँ शब्द हो गये व्यर्थ हैं

कोनों में बज उठी है दुंदुभी
तू शब्दशिल्पी था कभी
समय के साथ तू बह गया
तेरा पांडित्य पीछे रह गया


जो तू शब्दशिल्पी है तो
समय के पत्थर पर शब्दों में सान लगा तू।
शब्दों की पैनी धार से शब्दजाल काट तू।
बेड़ियों को काट बाहर निकल तू


शब्दों में नये प्राण फूँक तू
जो शब्दशिल्पी है तू, जो शब्दधर है तू
तो अब तो कुछ नया सोच तू
- मथुरा कलौनी

Tuesday, April 29, 2008

कब तक रहें कुँवारे

हमारा पिछला नाटक 'जो पीछे रह जाते हैं ' बहुत गंभीर था। अब ऐसे नाटक की मांग हुई जो हँसाए गुदगुदाए और दर्शकों का भर पूर मनोरंजन करे, यानी नाटक में दर्शकों को घर लेजाने के लिए कोई संदेश न हो।
मैं मंच पर खड़े होकर दुनिया को हिला देने वाला भाषण शायद न दे पाऊँ। महफिल में सड़े हुए जोक सुना कर लोगों को न हँसा पाऊँ या कविता के नाम पर बेतुकी तुकबंदी न कर पाऊँ पर मेरे हाथ्‍ा में कलम दे दीजिए, कुछ न कुछ बन ही जाता है।जो उतना अग्राह्य भी नहीं होता है। लिखना आरंभ किया तो नाटक बन ही गया। नाम है ' कब तक रहें कुँवारे ' । नाटक का पाठ हुआ और जब लोग हँसते हँसते लोटपोट हो गए तो बड़ा आनंद आया। सभी कहने लगे चलो इसका मंचन करते हैं। यहीं से मेरी व्‍यथा आरंभ होती है।
चलो इसका मंचन करते हैं का अर्थ हुआ कि मैं निर्देशन के साथ साथ नाटक का आदि से अंत तक निर्माण भी देखूँ। साथ ही कलाकरों के नखरे भी सहूँ।
मुझसे 'नहीं' कहते नहीं बनता। फिर अपना लिखा नाटक का अपने ही निर्देशन में मंचित हो तो क्‍या बात है। मोह तो रहता ही है। चने के झाड़ में चढाने वालों की भी कमी नहीं है।
'कब तक रहें कुँवारे' एक प्रहसन है। इसमें नाच है और कव्‍वाली भी है। यानी काफी मेहनत है। हॉल बुक हो गया है। नाटक का मंचन 20 जून को होना है। जब रिहर्सल का टाइमटेबल बनाया तो पता चला 12 कलाकारों में 5 एक दम नये है जो पहली बार मंच में उतरेंगे। ऊपर से कोई सोमवार को नहीं आ सकता, किसी की मंगलवार को टेलीकॉनफ्रेंस रहती है, कोई बुधवार को संगीत सीखने जाता है। एक की बुहस्‍पति को वीडियोकॉनफ्रेंस रहती है इत्‍यादि। इतवार के बारे में कइयों का कहना हे कि हफ्ते में एक दिन तो मिलता है उस दिन भी कोई नाटक की रिहर्सल करता है! इन सब व्‍याधा-व्‍यवधानों से आगे बढ़ो तो आधे कलाकार समय पर रिहर्सल पर नहीं पहुँचते। देर से आने के मैंने इतने बहाने सुने हैं कि अब कोई सच भी कहे तो विश्‍वास नहीं होता।
अब मैं बहुत गंभीर प्रकार से इस विषय पर सोच रहा हूँ कि मैं नाटक क्‍यों करता हूँ। हजार लोगों का एहसान ले कर, अपने परिवार की शांति भंग कर, अपनी गॉंठ से पैसे गंवा कर नाटक करने का क्‍या तुक है? लोग नशीली दवाइयों की लत छुड़ाने के लिए नर्सिंग होम में भर्ती होते है। क्‍या नाटको की लत छुड़ाने के लिए ऐसी व्‍यवस्‍था है? आप किसी ऐसे मनोरोग चिकित्‍सक को जानते हैं?

Thursday, April 17, 2008

मेरी कहानी

कई मोड़ों की है मेरी कहानी
रास्‍तों में कड़ी धूप की है मेरी कहानी
बात बहुत लंबी है पर रात है छोटी
कहॉं तक सु‍नि‍एगा आप मेरी कहानी

शबाब पर है आज की शाम
लबों के मुंति‍जर हैं हाथों के जाम
आज अब रहने दें
फि‍र कभी सुन ली‍जि‍एगा बाकी कहानी

मथुरा कलौनी

Thursday, March 20, 2008

ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक

एक अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन में भाग लेने फ्राइबर्ग (ब्‍लैक फॉरेस्‍ट) जर्मनी गया था। वहॉं एक प्रीति भोज का आयोजन था। कहना न होगा कि सब कुछ बहुत बड़े पैमाने पर किया गया था। पारंपरिक पोशाक, ऑर्केस्‍ट्रा, लोकनृत्‍य इत्‍यादि।
भोज समाप्‍ति की ओर बढ़ रहा था। अचानक हॉल में अंधेरा कर दिया गया। फिर ऑर्केस्‍ट्रा के शोर में रंगिबरंगे प्रकाश में सुंदर बालाऍं हाथ में ट्रे लेकर आईं। ट्रे में ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक था। माइक में घोषणा की गई कि अब महमानों को ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक परोसा जाएगा। ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक की महत्‍ता बताई गई। केक बहुत स्‍वादिष्‍ट था। सच कहूँ तो यहॉं बंगलौर में उससे अधिक स्‍वादिष्‍ट ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक खाया हुआ है। लेकिन जिस तरह से केक प्रस्‍तुत किया गया उससे साफ झलकता था कि वहॉं के लोग अपनी परंपरा, अपनी विशिष्‍ट वस्‍तुओं पर गर्व करते हैं।
मेरा अपना अनुभव है कि हम भारत में अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन नहीं करने का प्रयत्‍न करेंगे, ताकि हमें विदेश जाने का अवसर मिले। यदि सब तिकड़म लगाने के बाद भी अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन भारत में ही करना पड़ा तो हम उन्‍हीं की पारंपरिक पोशाक पहन कर उन्‍हें उनके ही व्‍यंजन परोसेंगे। ऐसा नहीं है कि हमें अपनी परंपराओं से प्‍यार नहीं है, पर हम उनको वही दर्जा क्‍यों नहीं देते जो ब्‍लैक फॉरेस्‍ट वाले ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक को देते हैं।

Tuesday, March 18, 2008

बंगलौर में हिन्‍दी नाटक - कुछ अनुभव - 1


कहते हैं हिन्‍दी किसी की भाषा नहीं है इसलिए यह सब की भाषा है। सब की भाषा होने के कारण हिन्‍दी उपेक्षित हो गई है। यह जान कर दुख होता है कि जिनकी मातृभाषा हिन्‍दी है उनके बच्‍चे अंग्रेजी के चरण पखारते रहते हैं। वे हिन्‍दी भी अंग्रेजी में बोलते हैं जैसे भीष्‍म पितामह को बिसम पितमह और संजय को संजेय। यह देख कर अच्‍छा लगता हे कि आजकल हिन्‍दी के प्रति जागरूकता बढ़ी है। फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो आपसे कहते हैं ' आप बड़ी शुद्ध हिन्‍दी बोलते है।'


एक वाकया याद आता है। आषाड़ का एक दिन का मंचन हो रहा था। नाटक के बाद मेरे एक जानपहचान के स्‍टेज में आए और कहने लगे 'नाटक की हिन्‍दी इतनी कठिन है। बंगलौर में यह नहीं चलेगा।'
इन सज्‍जन ने हिन्‍दी को अनाथ समझ कर अपना लिया था, लिहाजा वे ही तय करेंगे कि बंगलौरवासियों को कैसी हिन्‍दी परोसनी चाहिए। उन सज्‍जन की भविष्‍यवाणी कि अगली बार तुम्‍हारा नाटक देखने कोई नही आएगा गलत सिद्ध हुई। लोग नाटक देखने आते ही हैं। दर्शकों में अहिन्‍दीभाषी बहुत बड़ी संख्‍या में आते है।
- मथुरा कलौनी

Monday, March 17, 2008

प्रकृति का एक रूप


अपना सौंदर्य बिखेरने में प्रकृति कभी कृपणता नहीं दिखाती है।


Thursday, March 13, 2008

दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

पंख अब हम कहाँ फैलायें
आसमां क्यों सिकुड़ सा गया है
सूरज तो रोज ही उगता है
दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

आँखों में है धूल और पसीना
मंजिल धुँधली नजर आ रही है
अभी तो दिन ढला ही नहीं
साये क्यों लंबे हो गये हैं।

अंधेरों की अब आदत पड़ सी गई है
ऑखें चुंधियाती हैं शीतल चांदनी में
बियाबां की डरावनी शक्लें हैं
चेहरे ही गुम क्यों हो गये हैं।

जमीं पे पाया औ यहीं है खोया
क्यों ढूढते हैं हम अब आसमां में
हम वही हैं कारवां भी वही है
पर आदमी अब कम क्यों हो गये हैं।


-मथुरा कलौनी

Wednesday, March 12, 2008

खुल के हँसना सब को आता है

खुल के हँसना सब को आता है

लोग तरसते हैं एक बहाने को

Tuesday, March 4, 2008

परिधि के बाहर - शेष कहानी

उसका अनुमान ठीक निकला। कुमार अपने केबिन से निकल कर उसके टेबल के पास आया और बोला, 'चंद्रा आज कुछ देर रुकना पड़ेगा।'


'रुक जाऊँगी सर।'


'एग्रीमेंट के पेपर तैयार रखना।'


'तैयार हैं सर। बस, रिक्त स्थानों की पूर्ति बाकी है।'


'गुड गर्ल। जरा तीन कप चाय अंदर भिजवा दो और सब पेपर्स लेकर दस मिनट में तुम भी अंदर आ जाओ।'


कुमार के स्वर में उत्साह था। चंद्रा भी उससे प्रभावित हो उठी। एक बड़ा बिजनेस एग्रीमेंट! कुमार इन्टरप्राइज की लंबी यात्रा का एक और माइल स्टोन। काश, ईश्वर इसे समझ सकता।


कुमार ने उसे उस समय काम दिया था जब उसे काम की बहुत अधिक आवश्यकता थी। तब कंपनी आठ फुट बाई आठ फुट के कमरे में समाई हुई थी। वहाँ से उन्नति करके कुमार इन्टरप्राइज आज इतनी बड़ी कंपनी हो गई है। इस कंपनी के साथ ऊँच-नीच समझते हुए वह भी परिपक्व हुई है। कुमार के साथ काम करने में उसे आनंद आता है। सुलझा हुआ, आत्मविश्वासी और उदार व्यक्तित्व। उसे उसके काम के लिए श्रेय देने में या वार्षिक इन्क्रीमेंट, केश एवार्ड ओर बोनस देने में उसने कभी कृपणता नहीं दिखाई।


ईश्वर कुमार से जलता है। इसलिए कि वह उसे बहुत अधिक मानती है। वह ईश्वर को कैसे समझाए? क्या वह नहीं जानता है कि कुमार उसका इंप्लायर है, लवर नहीं।


फोन की आवाज ने उसकी तंद्रा तोड़ी। उसने रिसीवर उठाया। दूसरी ओर से आवाज आई 'हलो कुमार!' राधिका का स्वर था - कुमार की पत्नी का।


'मिस्टर कुमार क्लाइन्टों के साथ मीटिंग में हैं, मिसेज कुमार।' उसने उत्तर दिया।


'पर यह तो कुमार का डाइरेक्ट नंबर है।'


' जी, पर जब वे इंपॉर्टेन्ट मीटिंग में होते है तो उनकी सब कॉल मैं ही मॉनीटर करती हूँ।'


'तुम चंद्रा हो?'


राधिका कुमार कई बार उससे मिल चुकी है, हजारों बार उससे फोन में बात कर चुकी है, पर उसे नहीं पहचानने का अभिनय करना नहीं भूलती।


'फोन कुमार को दो।' राधिका ने उग्र स्वर में कहा।


'जी अभी देती हूँ।' उसने कहा।


कुमार के फोन से लाइन जोड़ कर उसने कहा, 'सर, मिसेज कुमार आपसे बात करना चाहती हैं।'


'ओह, चंद्रा तुम भी... अच्छा कनेक्ट करो।' कुमार ने कहा।


ऑफिस बंद करते-करते आठ बज गए। ऑफिस से निकल कर चंद्रा ने कहा, 'अच्छा सर, अब मैं चलती हूँ।'


'दिमाग खराब है तुम्हारा! मैं तुम्हें तुम्हारे घर तब छोड़ देता हूँ।' कुमार ने कहा।


वह कुमार से कैसे कहे कि कार में जाना उसके लिए कितना महँगा पड़ेगा। इतना तो अनुमान वह लगा ही सकती थी कि कल उसे ले कर कुमार और राधिका में झड़प होगी। जब भी वे दोनों शाम को देर तक काम करते हैं, राधिका का फोन आता है और अगले दिन कुमार का मूड खराब रहता है।
इतना ही नहीं, कुमार की कार में उसे देख कर ईश्वर का पारा भी सातवें आसमान में चढ़ जाएगा। ईश्वर का व्यवहार तो उसे समझ में आता है। वह जानती है कि मर्दों की दुनिया में औरत मर्दों की संपत्ति है। इसलिए औेरत का अपना अलग अस्तित्व उनको स्वीकार नहीं हो सकता है। लेकिन राधिका तो एक औरत है, फिर भी वह ईश्वर की तरह क्यों सोचती है? ( समाप्‍त)

- मथुरा कलौनी

Saturday, March 1, 2008

बीस साल बाद

परिधि के बाहर

स्त्री-पुरुष संबंधों पर मेरी यह कहानी बीस साल पहले साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी थी। उस समय कहानी चर्चा का विषय बनी थी। एक मित्र ने मुझसे यहाँ तक कहा था कि ऐसी कहानी न लिखा करूँ, "बेकार में झगड़ा होता है"। पता नहीं आज के जमाने में (तब बीसवीं सदी थी और अभी इक्कीसवीं चल रही है) यह कहानी कितनी समसामयिक है। मेरे अपने संकीर्ण दायरे में तो लगता है कि हम इस तरह की मानसिकता को शायद बीसवीं सदी में ही छोड़ आए हैं, पर मेरे दायरे के बाहर दुनिया बहुत बड़ी है। अस्तु। पढ़िए और गुनिए।


परिधि के बाहर

'ईश्वर, तुम नहीं चाहते हो तो मैं नौकरी छोड़ देती हूँ।'

'जैसे मेरे कहने से तुम छोड़ ही दोगी।'

'तुम कह के तो देखो!'

'मैं क्यों कहूँ? तुम्हें छोड़ना है तो छोड़ो।'

'यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी। तुमको अच्छी तरह से मालूम है कि अपनी इच्छा से मैं अपनी नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। फिर जो मैं कमाती हूँ वह कम नहीं है। मैं नौकरी छोड़ दूँगी तो...'

'अरे तुम नौकरी छोड़ दोगी तो हम भूखे नहीं मरेंगे। अभी इतना कमाता ही हूँ कि हम दोनों का गुजारा हो सके। अपनी कमाई का बहुत घमंड तुम्हें?'

'घमंड नहीं गर्व है। तुम्हें अपनी स्थिति पर गर्व है तो मुझे भी है। कड़ी मेहनत और लगन से ही मैं इस स्थिति तक पहुँची हूँ।'

'यह कहो कि कुमार की मेहरबानी से इस स्थिति तक पहुँची हो।'

ईश्वर और चंद्रा का प्रेम विवाह था। चंद्रा आधुनिक दुनिया की एक कामकाजी महिला थी। हो सकता है उसने नौकरी मजबूरी में की हो। पर यह मजबूरी वैसी ही थी, जैसी एक पुरुष के लिए होती है। उसके जीवन की परिस्थिति ऐसी थी कि उसका नौकरी करना बहुत स्वाभाविक था। नौकरी करते उसको कई वर्ष बीत गए थे। ऑफिस की दुनिया में उसकी अपनी जिम्मेदारी थी, अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं, अपने निर्णय थे। और यह अहसास था कि वह भी कुछ कर रही है जो किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान के लिए इतना महत्वपूर्ण होता है।

डेढ़ साल पहले उसने ईश्वर से शादी की थी। उसे मालूम था कि पुरुषों की दुनिया में यह कहना कुछ अटपटा लगता है कि उसने ईश्वर से शादी की थी, क्यों कि यहाँ पुरुष शादी करते हैं और स्त्रियों की शादी होती है। पर चंद्रा ने ऐसा कभी नहीं सोचा था। दोनों का प्रेम विवाह था - बराबरी का।

शादी का ग्लैमर तो कुछ ही महीनों में समाप्त प्राय हो गया था। फिर आरंभ हुए थे झगड़े। जैसा कि होता है, बिना किसी ठोस कारण वाले झगड़े। अपनी कुंठाओं और दबी हुई इच्छाओं का ओछा प्रदर्शन। पर चंद्रा परिपक्व थी। वह जानती थी कि ये झगड़े उन दोनों के बीच कारण-अकारण तनाव में सेफ्टी वाल्भ का काम करते हैं और इसलिए जीवन के अनिवार्य अंग हैं।

वह महसूस कर रही थी कि पिछले कुछ अरसे से एक दो विषयों पर झगड़े अधिक हो रहे थे। विषय थे उसकी स्वच्छंदता, उसकी नौकरी और उसका कुमार के साथ काम करना। पहली बार जब ईश्वर ने कुमार की मेहरबानी की बात की थी तो चंद्रा को उन दोनों के बीच प्यार और समझदारी की जो इमारत थी, ढहती हुई नजर आई। केवल शादी के बंधन ने चंद्रा को बाँधे रखा। हालाँकि ईश्वर ने केवल ऐसी ही बात कही थी जो पुरुष प्रधान समाज में अकसर कही जाती है। चंद्रा को मालूम था कि कि औरत और मर्द के संबंधों में औरत को कभी भी अकारण दोषी ठहराया जा सकता है। पर उसे कम-से-कम ईश्वर से ऐसी आशा नहीं थी।

वह रात भर रोती रही थी। यदि ईश्वर के मन में गंदगी आई तो उसके पास अपनी समझदारी थी, चंद्रा का प्यार था, फिर उसने यह गंदगी क्यों उगली।

ईश्वर ने उसे बहुत मनाया। दो दिन तक रोया गिड़गिड़ाया। चंद्रा ने जब देखा कि वह सचमुच पश्चात्ताप कर रहा है तो वह ठीक हुई थी। यह तब की बात है। अब भी तैश में, गुस्से में ईश्वर कुमार की मेहरबानी की बात करता है। पर अब चंद्रा रोती नहीं है। दाम्पत्य जीवन के लिए कुछ मूल्य शायद चुकाना ही पड़ता है। अब वह इसी विचार को ढाल के तौर पर व्यवहार में लाती है। किंतु कुमार को ले कर उसका अपमान, अब भी एक करारी चोट होती है। वह अपने को सँभाले ही सँभाल पाती है। चोट करने के बाद ईश्वर अब भी पछताता है कि उसने ऐसा क्यों कहा।

'चंद्रा, आई एम सॉरी !' वह कहता है।

'यह कोई पहली बार सॉरी नहीं बोल रहे हो तुम! चंद्रा कहती है।

'पता नहीं मुझे क्या हो जाता है कभी-कभी!'

'मुझे मालूम है तुम्हें क्या हो जाता है। तुम कहने को तो आधुनिक हो, लेकिन प्रकृति तुम्हारी वही केव-मैन की है।'

'यह तो तुम ज्यादती कर रही हो।'

'मैं ज्यादती कर रही हूँ? अगर तुम सचमुच समझदार हो तो तुम मेरे अस्तित्व को क्यों नहीं स्वीकार करते? मेरा भी अपना व्यक्तित्व है। मैं भी तुम्हारी तरह काम करती हूँ। काम में देर-सबेर तो होती रहती है। वहाँ मेरी भी जिम्मेदारी है। इतनी सी बात तुम समझते तो आज का यह सीन नहीं होता।'

'मैं समझता हूँ चंद्रा कि तुम बहुत मीक हो। अपने अधिकारों के लिए खड़ी नहीं हो सकती हो। एक बार कुमार ने कह दिया कि रुक जाओ और बस तुम रुक गईं। तुम्हारे ऑफिस में और भी तो स्टाफ है, फिर तुम्हीं को क्यों रुकना पड़ता है। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी पत्नी के अच्छे स्वभाव का लाभ उठाए।'

'देखो ईश्वर, तुमको मालूम है कि अठारह साल की उमर से मैं स्वावलंबी हो कर नौकरी कर रही हूँ। अच्छे-बुरे की तमीज है मुझमें। मेरे व्यक्तित्व को क्यों नहीं स्वीकारते तुम?'

'अपनी लच्छेदार बातें रहने दो चंद्रा! सच बात तो यह है कि तुम्हारा अहम् बहुत बड़ा है। मुझसे हजम नहीं होता है। एक अकेली तुम ही तो नौकरी नहीं कर रही हो। लाखों औरतें काम करती हैं। तुम्हारी तरह घर से अधिक ऑफिस को अहमियत कोई नहीं देता है।'

'पता नहीं ईश्वर, तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं। तुम चाहते हो कि मैं नौकरी भी करूँ तो तुम्हारी शर्तों पर। तुम अहमियत की बात कर रहे हो। तुम मुझसे मुँह खोल कर कहो कि चंद्रा तुम नौकरी मत करो तो मैं नौकरी नहीं करूँगी। मुझे भले ही यह अच्छा न लगे। यदि मैं तुमसे कहूँ कि ईश्वर तुम नौकरी न करो तो तुम शायद ही मेरी बात मानो।'

'ऐसा भी कहीं हुआ है क्या?'

'नहीं हुआ है। मुझे मालूम है। तभी तो... '

बहस ऐसे ही समाप्त होती है, या बढ़ती ही चली जाती है, जब तक कि एक थक न जाए। यहाँ बात समझने की नहीं होती, मानने की होती है। दोनों को एक दूसरे के मन की बात का पता रहता है।
पिछले एक साल से कमोबेश यही चला आ रहा था। और यही चलता रहेगा, चंद्रा ने सोचा। हमारा व्यवहार इतना प्रेडिक्टेबल क्यों होता है? झगड़ा नहीं करना चाहते हैं, तो क्यों करते हैं? क्या हम अपनी इस मानसिकता पर कभी विजय पा सकेंगे?

साढ़े पाँच बज गए थे। कुमार के केबिन का दरवाजा अभी तक बंद था। आज फिर देर हो जाएगी, चंद्रा ने सोचा।

- अभी और है, जिसे मैं एक या दो दिन के अंदर अपलोड करने की चेष्‍टा करूँगा।

Monday, February 25, 2008

दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

पंख अब हम कहाँ फैलायें
आसमां क्यों सिकुड़ सा गया है
सूरज तो रोज ही उगता है
दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

आँखों में है धूल और पसीना
मंजिल धुँधली नजर आ रही है
अभी तो दिन ढला ही नहीं
साये क्यों लंबे हो गये हैं।

अंधेरों की अब आदत पड़ सी गई है
ऑखें चुंधियाती हैं शीतल चांदनी में
बियाबां की डरावनी शक्लें हैं
चेहरे ही गुम क्यों हो गये हैं।

जमीं पे पाया औ यहीं है खोया
क्यों ढूढते हैं हम अब आसमां में
हम वही हैं कारवां भी वही है
पर आदमी अब कम क्यों हो गये हैं।
-मथुरा कलौनी

Wednesday, February 20, 2008

आखिर है क्या यह प्यार

यह क्या बात हुई कि प्यार जताने के लिये साल का एक दिन निश्चित हो। ऐसी ऊलजलूल बातें पश्चिम से ही इम्पोर्ट होती हैं। जैसे वैलेन्टाइन डे न हो तो दुनियाँ से प्यार ही गायब हो जाय। प्यार तो कभी भी हो सकता है। उसे जताने के लिये वैलेन्टाइन डे तक इंतजार करना वेवकूफी है। यह निर्विवाद सत्य है कि प्यार कभी भी हो सकता है। पर रहता कितनी देर है, यह विवादास्पद है। आज प्यार हुआ तो मेरी मानिये आज ही गुलाब का फूल दे डालिये। इंतजार कीजियेगा तो हो सकता है कि प्यार हुआ, उफान पर आया और गुलाब का फूल देने से पहले ही फिस्स हो कर मर गया। वैलेन्टाइन डे तक तो पता चला पार्टनर चार बार बदल चुके हैं।

आखिर है क्या यह प्यार?
मेरे हिसाब से प्यार एक भावनात्मक क्षण है। आज से सहस्रों वर्ष पहले जब प्यार का आविष्कार हुआ था तब लोगों के पास कामकाज तो अधिक था नहीं। पूरा का पूरा जीवन होता था उनके सामने, भावना में बहने के लिये। तभी शायद कहा गया होगा कि प्रेम ही जीवन है। पर आजकल की भागमभाग में प्रेम के लिये केवल क्षण ही उपलब्ध है। लड़का-लड़की, भावना, वातावरण आदि जब सही मात्रा में मिक्स होते हैं तो झट से प्यार हो जाता है। जब वातावरण में किसी भी कारण थोड़ा भी बदलाव आता है तो मिक्सचर बिगड़ जाता है। मिक्सचर बिगड़ा तो प्यार समाप्त। यह अगले ही क्षण हो सकता है।
आप नहीं मानते!

डंडा - अस्त्र है या शस्त्र ?

फेंक कर मारा जाय तो अस्त्र है।
जम कर लगाया जाय तो शस्त्र है।

Sunday, February 17, 2008

कुछ नई परिभाषाएं

कंट्रोल करना - होनी को कौन टाल सकता है?
विशेषज्ञ - किसी एक विशेष विषय को छोड़ कर बाकी विषयों में शून्य।
यदि, यद्यपि - जो संभव न हो। भविष्यवक्ता का तकिया कलाम। यदि नौ मन तेल होता तो राधा अवश्य नाचती।
चुटकुला, जोक - राजनैतिक गठबंधन।
पागल - स्वतंत्र सोचने वाला।
मनुष्य - आदमी या औरत।
आत्मा - अपदार्थ।

वे दिन

वर्तमान सदा रहा है बोर
दैनिक चिंताओं और परेशानियों का शोर
कितना मधुर होता है अतीत
वर्तमान जब होता है व्यतीत।

वह स्कूल औ' कॉलेज के दिन
चिंता परीक्षाओं की, किताबों की घुटन
अनुशासन में बँधा तब का जीवन
आज लगता कितना स्वच्छंद

वह बाप की डपट औ' माँ की फटकार
पहली सिगरेट सुलगाते जब चाचा ने देखा
वह काफ़ी हाउस के झगड़े तोड़फोड़
खींच रहे हैं होठों में स्मित रेखा

एक के बाद एक आ रहे हैं
बीते दिन पकड़कर यादों की डोर
और अपेक्षा में बैठा हूँ मैं
कब जाएगा वर्तमान अतीत की ओर
- मथुरा कलौनी

नफरत की सियाही

हुस्न है अदा भी है
आशिक़ ही दहशतोजुनूं को माशूक बनाए हुए हैं
सूरज औ चॉंद की रोशनी भी क्या करे
फ़ख्‍ऱ से मुँह में वे कालिख लगाए हुए हैं।

हम अब भी बाम पे जाते हैं,
चेहरे से नकाब सरकाते हैं।
देखने की ताब वो कहॉं से लाएँ,
जो सियाह रातों में चेहरा छुपाते हैं।

दिल ही नहीं देता है सदा,
नफरत की सियाही छाई हुई है।
जानलेवा तो अब भी है अदा,
पर मुहब्बत मुरझाई हुई है।

मथुरा कलौनी

चिलमन