Thursday, March 20, 2008

ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक

एक अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन में भाग लेने फ्राइबर्ग (ब्‍लैक फॉरेस्‍ट) जर्मनी गया था। वहॉं एक प्रीति भोज का आयोजन था। कहना न होगा कि सब कुछ बहुत बड़े पैमाने पर किया गया था। पारंपरिक पोशाक, ऑर्केस्‍ट्रा, लोकनृत्‍य इत्‍यादि।
भोज समाप्‍ति की ओर बढ़ रहा था। अचानक हॉल में अंधेरा कर दिया गया। फिर ऑर्केस्‍ट्रा के शोर में रंगिबरंगे प्रकाश में सुंदर बालाऍं हाथ में ट्रे लेकर आईं। ट्रे में ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक था। माइक में घोषणा की गई कि अब महमानों को ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक परोसा जाएगा। ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक की महत्‍ता बताई गई। केक बहुत स्‍वादिष्‍ट था। सच कहूँ तो यहॉं बंगलौर में उससे अधिक स्‍वादिष्‍ट ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक खाया हुआ है। लेकिन जिस तरह से केक प्रस्‍तुत किया गया उससे साफ झलकता था कि वहॉं के लोग अपनी परंपरा, अपनी विशिष्‍ट वस्‍तुओं पर गर्व करते हैं।
मेरा अपना अनुभव है कि हम भारत में अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन नहीं करने का प्रयत्‍न करेंगे, ताकि हमें विदेश जाने का अवसर मिले। यदि सब तिकड़म लगाने के बाद भी अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन भारत में ही करना पड़ा तो हम उन्‍हीं की पारंपरिक पोशाक पहन कर उन्‍हें उनके ही व्‍यंजन परोसेंगे। ऐसा नहीं है कि हमें अपनी परंपराओं से प्‍यार नहीं है, पर हम उनको वही दर्जा क्‍यों नहीं देते जो ब्‍लैक फॉरेस्‍ट वाले ब्‍लैक फॉरेस्‍ट केक को देते हैं।

Tuesday, March 18, 2008

बंगलौर में हिन्‍दी नाटक - कुछ अनुभव - 1


कहते हैं हिन्‍दी किसी की भाषा नहीं है इसलिए यह सब की भाषा है। सब की भाषा होने के कारण हिन्‍दी उपेक्षित हो गई है। यह जान कर दुख होता है कि जिनकी मातृभाषा हिन्‍दी है उनके बच्‍चे अंग्रेजी के चरण पखारते रहते हैं। वे हिन्‍दी भी अंग्रेजी में बोलते हैं जैसे भीष्‍म पितामह को बिसम पितमह और संजय को संजेय। यह देख कर अच्‍छा लगता हे कि आजकल हिन्‍दी के प्रति जागरूकता बढ़ी है। फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो आपसे कहते हैं ' आप बड़ी शुद्ध हिन्‍दी बोलते है।'


एक वाकया याद आता है। आषाड़ का एक दिन का मंचन हो रहा था। नाटक के बाद मेरे एक जानपहचान के स्‍टेज में आए और कहने लगे 'नाटक की हिन्‍दी इतनी कठिन है। बंगलौर में यह नहीं चलेगा।'
इन सज्‍जन ने हिन्‍दी को अनाथ समझ कर अपना लिया था, लिहाजा वे ही तय करेंगे कि बंगलौरवासियों को कैसी हिन्‍दी परोसनी चाहिए। उन सज्‍जन की भविष्‍यवाणी कि अगली बार तुम्‍हारा नाटक देखने कोई नही आएगा गलत सिद्ध हुई। लोग नाटक देखने आते ही हैं। दर्शकों में अहिन्‍दीभाषी बहुत बड़ी संख्‍या में आते है।
- मथुरा कलौनी

Monday, March 17, 2008

प्रकृति का एक रूप


अपना सौंदर्य बिखेरने में प्रकृति कभी कृपणता नहीं दिखाती है।


Thursday, March 13, 2008

दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

पंख अब हम कहाँ फैलायें
आसमां क्यों सिकुड़ सा गया है
सूरज तो रोज ही उगता है
दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

आँखों में है धूल और पसीना
मंजिल धुँधली नजर आ रही है
अभी तो दिन ढला ही नहीं
साये क्यों लंबे हो गये हैं।

अंधेरों की अब आदत पड़ सी गई है
ऑखें चुंधियाती हैं शीतल चांदनी में
बियाबां की डरावनी शक्लें हैं
चेहरे ही गुम क्यों हो गये हैं।

जमीं पे पाया औ यहीं है खोया
क्यों ढूढते हैं हम अब आसमां में
हम वही हैं कारवां भी वही है
पर आदमी अब कम क्यों हो गये हैं।


-मथुरा कलौनी

Wednesday, March 12, 2008

खुल के हँसना सब को आता है

खुल के हँसना सब को आता है

लोग तरसते हैं एक बहाने को

Tuesday, March 4, 2008

परिधि के बाहर - शेष कहानी

उसका अनुमान ठीक निकला। कुमार अपने केबिन से निकल कर उसके टेबल के पास आया और बोला, 'चंद्रा आज कुछ देर रुकना पड़ेगा।'


'रुक जाऊँगी सर।'


'एग्रीमेंट के पेपर तैयार रखना।'


'तैयार हैं सर। बस, रिक्त स्थानों की पूर्ति बाकी है।'


'गुड गर्ल। जरा तीन कप चाय अंदर भिजवा दो और सब पेपर्स लेकर दस मिनट में तुम भी अंदर आ जाओ।'


कुमार के स्वर में उत्साह था। चंद्रा भी उससे प्रभावित हो उठी। एक बड़ा बिजनेस एग्रीमेंट! कुमार इन्टरप्राइज की लंबी यात्रा का एक और माइल स्टोन। काश, ईश्वर इसे समझ सकता।


कुमार ने उसे उस समय काम दिया था जब उसे काम की बहुत अधिक आवश्यकता थी। तब कंपनी आठ फुट बाई आठ फुट के कमरे में समाई हुई थी। वहाँ से उन्नति करके कुमार इन्टरप्राइज आज इतनी बड़ी कंपनी हो गई है। इस कंपनी के साथ ऊँच-नीच समझते हुए वह भी परिपक्व हुई है। कुमार के साथ काम करने में उसे आनंद आता है। सुलझा हुआ, आत्मविश्वासी और उदार व्यक्तित्व। उसे उसके काम के लिए श्रेय देने में या वार्षिक इन्क्रीमेंट, केश एवार्ड ओर बोनस देने में उसने कभी कृपणता नहीं दिखाई।


ईश्वर कुमार से जलता है। इसलिए कि वह उसे बहुत अधिक मानती है। वह ईश्वर को कैसे समझाए? क्या वह नहीं जानता है कि कुमार उसका इंप्लायर है, लवर नहीं।


फोन की आवाज ने उसकी तंद्रा तोड़ी। उसने रिसीवर उठाया। दूसरी ओर से आवाज आई 'हलो कुमार!' राधिका का स्वर था - कुमार की पत्नी का।


'मिस्टर कुमार क्लाइन्टों के साथ मीटिंग में हैं, मिसेज कुमार।' उसने उत्तर दिया।


'पर यह तो कुमार का डाइरेक्ट नंबर है।'


' जी, पर जब वे इंपॉर्टेन्ट मीटिंग में होते है तो उनकी सब कॉल मैं ही मॉनीटर करती हूँ।'


'तुम चंद्रा हो?'


राधिका कुमार कई बार उससे मिल चुकी है, हजारों बार उससे फोन में बात कर चुकी है, पर उसे नहीं पहचानने का अभिनय करना नहीं भूलती।


'फोन कुमार को दो।' राधिका ने उग्र स्वर में कहा।


'जी अभी देती हूँ।' उसने कहा।


कुमार के फोन से लाइन जोड़ कर उसने कहा, 'सर, मिसेज कुमार आपसे बात करना चाहती हैं।'


'ओह, चंद्रा तुम भी... अच्छा कनेक्ट करो।' कुमार ने कहा।


ऑफिस बंद करते-करते आठ बज गए। ऑफिस से निकल कर चंद्रा ने कहा, 'अच्छा सर, अब मैं चलती हूँ।'


'दिमाग खराब है तुम्हारा! मैं तुम्हें तुम्हारे घर तब छोड़ देता हूँ।' कुमार ने कहा।


वह कुमार से कैसे कहे कि कार में जाना उसके लिए कितना महँगा पड़ेगा। इतना तो अनुमान वह लगा ही सकती थी कि कल उसे ले कर कुमार और राधिका में झड़प होगी। जब भी वे दोनों शाम को देर तक काम करते हैं, राधिका का फोन आता है और अगले दिन कुमार का मूड खराब रहता है।
इतना ही नहीं, कुमार की कार में उसे देख कर ईश्वर का पारा भी सातवें आसमान में चढ़ जाएगा। ईश्वर का व्यवहार तो उसे समझ में आता है। वह जानती है कि मर्दों की दुनिया में औरत मर्दों की संपत्ति है। इसलिए औेरत का अपना अलग अस्तित्व उनको स्वीकार नहीं हो सकता है। लेकिन राधिका तो एक औरत है, फिर भी वह ईश्वर की तरह क्यों सोचती है? ( समाप्‍त)

- मथुरा कलौनी

Saturday, March 1, 2008

बीस साल बाद

परिधि के बाहर

स्त्री-पुरुष संबंधों पर मेरी यह कहानी बीस साल पहले साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी थी। उस समय कहानी चर्चा का विषय बनी थी। एक मित्र ने मुझसे यहाँ तक कहा था कि ऐसी कहानी न लिखा करूँ, "बेकार में झगड़ा होता है"। पता नहीं आज के जमाने में (तब बीसवीं सदी थी और अभी इक्कीसवीं चल रही है) यह कहानी कितनी समसामयिक है। मेरे अपने संकीर्ण दायरे में तो लगता है कि हम इस तरह की मानसिकता को शायद बीसवीं सदी में ही छोड़ आए हैं, पर मेरे दायरे के बाहर दुनिया बहुत बड़ी है। अस्तु। पढ़िए और गुनिए।


परिधि के बाहर

'ईश्वर, तुम नहीं चाहते हो तो मैं नौकरी छोड़ देती हूँ।'

'जैसे मेरे कहने से तुम छोड़ ही दोगी।'

'तुम कह के तो देखो!'

'मैं क्यों कहूँ? तुम्हें छोड़ना है तो छोड़ो।'

'यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी। तुमको अच्छी तरह से मालूम है कि अपनी इच्छा से मैं अपनी नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। फिर जो मैं कमाती हूँ वह कम नहीं है। मैं नौकरी छोड़ दूँगी तो...'

'अरे तुम नौकरी छोड़ दोगी तो हम भूखे नहीं मरेंगे। अभी इतना कमाता ही हूँ कि हम दोनों का गुजारा हो सके। अपनी कमाई का बहुत घमंड तुम्हें?'

'घमंड नहीं गर्व है। तुम्हें अपनी स्थिति पर गर्व है तो मुझे भी है। कड़ी मेहनत और लगन से ही मैं इस स्थिति तक पहुँची हूँ।'

'यह कहो कि कुमार की मेहरबानी से इस स्थिति तक पहुँची हो।'

ईश्वर और चंद्रा का प्रेम विवाह था। चंद्रा आधुनिक दुनिया की एक कामकाजी महिला थी। हो सकता है उसने नौकरी मजबूरी में की हो। पर यह मजबूरी वैसी ही थी, जैसी एक पुरुष के लिए होती है। उसके जीवन की परिस्थिति ऐसी थी कि उसका नौकरी करना बहुत स्वाभाविक था। नौकरी करते उसको कई वर्ष बीत गए थे। ऑफिस की दुनिया में उसकी अपनी जिम्मेदारी थी, अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं, अपने निर्णय थे। और यह अहसास था कि वह भी कुछ कर रही है जो किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान के लिए इतना महत्वपूर्ण होता है।

डेढ़ साल पहले उसने ईश्वर से शादी की थी। उसे मालूम था कि पुरुषों की दुनिया में यह कहना कुछ अटपटा लगता है कि उसने ईश्वर से शादी की थी, क्यों कि यहाँ पुरुष शादी करते हैं और स्त्रियों की शादी होती है। पर चंद्रा ने ऐसा कभी नहीं सोचा था। दोनों का प्रेम विवाह था - बराबरी का।

शादी का ग्लैमर तो कुछ ही महीनों में समाप्त प्राय हो गया था। फिर आरंभ हुए थे झगड़े। जैसा कि होता है, बिना किसी ठोस कारण वाले झगड़े। अपनी कुंठाओं और दबी हुई इच्छाओं का ओछा प्रदर्शन। पर चंद्रा परिपक्व थी। वह जानती थी कि ये झगड़े उन दोनों के बीच कारण-अकारण तनाव में सेफ्टी वाल्भ का काम करते हैं और इसलिए जीवन के अनिवार्य अंग हैं।

वह महसूस कर रही थी कि पिछले कुछ अरसे से एक दो विषयों पर झगड़े अधिक हो रहे थे। विषय थे उसकी स्वच्छंदता, उसकी नौकरी और उसका कुमार के साथ काम करना। पहली बार जब ईश्वर ने कुमार की मेहरबानी की बात की थी तो चंद्रा को उन दोनों के बीच प्यार और समझदारी की जो इमारत थी, ढहती हुई नजर आई। केवल शादी के बंधन ने चंद्रा को बाँधे रखा। हालाँकि ईश्वर ने केवल ऐसी ही बात कही थी जो पुरुष प्रधान समाज में अकसर कही जाती है। चंद्रा को मालूम था कि कि औरत और मर्द के संबंधों में औरत को कभी भी अकारण दोषी ठहराया जा सकता है। पर उसे कम-से-कम ईश्वर से ऐसी आशा नहीं थी।

वह रात भर रोती रही थी। यदि ईश्वर के मन में गंदगी आई तो उसके पास अपनी समझदारी थी, चंद्रा का प्यार था, फिर उसने यह गंदगी क्यों उगली।

ईश्वर ने उसे बहुत मनाया। दो दिन तक रोया गिड़गिड़ाया। चंद्रा ने जब देखा कि वह सचमुच पश्चात्ताप कर रहा है तो वह ठीक हुई थी। यह तब की बात है। अब भी तैश में, गुस्से में ईश्वर कुमार की मेहरबानी की बात करता है। पर अब चंद्रा रोती नहीं है। दाम्पत्य जीवन के लिए कुछ मूल्य शायद चुकाना ही पड़ता है। अब वह इसी विचार को ढाल के तौर पर व्यवहार में लाती है। किंतु कुमार को ले कर उसका अपमान, अब भी एक करारी चोट होती है। वह अपने को सँभाले ही सँभाल पाती है। चोट करने के बाद ईश्वर अब भी पछताता है कि उसने ऐसा क्यों कहा।

'चंद्रा, आई एम सॉरी !' वह कहता है।

'यह कोई पहली बार सॉरी नहीं बोल रहे हो तुम! चंद्रा कहती है।

'पता नहीं मुझे क्या हो जाता है कभी-कभी!'

'मुझे मालूम है तुम्हें क्या हो जाता है। तुम कहने को तो आधुनिक हो, लेकिन प्रकृति तुम्हारी वही केव-मैन की है।'

'यह तो तुम ज्यादती कर रही हो।'

'मैं ज्यादती कर रही हूँ? अगर तुम सचमुच समझदार हो तो तुम मेरे अस्तित्व को क्यों नहीं स्वीकार करते? मेरा भी अपना व्यक्तित्व है। मैं भी तुम्हारी तरह काम करती हूँ। काम में देर-सबेर तो होती रहती है। वहाँ मेरी भी जिम्मेदारी है। इतनी सी बात तुम समझते तो आज का यह सीन नहीं होता।'

'मैं समझता हूँ चंद्रा कि तुम बहुत मीक हो। अपने अधिकारों के लिए खड़ी नहीं हो सकती हो। एक बार कुमार ने कह दिया कि रुक जाओ और बस तुम रुक गईं। तुम्हारे ऑफिस में और भी तो स्टाफ है, फिर तुम्हीं को क्यों रुकना पड़ता है। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी पत्नी के अच्छे स्वभाव का लाभ उठाए।'

'देखो ईश्वर, तुमको मालूम है कि अठारह साल की उमर से मैं स्वावलंबी हो कर नौकरी कर रही हूँ। अच्छे-बुरे की तमीज है मुझमें। मेरे व्यक्तित्व को क्यों नहीं स्वीकारते तुम?'

'अपनी लच्छेदार बातें रहने दो चंद्रा! सच बात तो यह है कि तुम्हारा अहम् बहुत बड़ा है। मुझसे हजम नहीं होता है। एक अकेली तुम ही तो नौकरी नहीं कर रही हो। लाखों औरतें काम करती हैं। तुम्हारी तरह घर से अधिक ऑफिस को अहमियत कोई नहीं देता है।'

'पता नहीं ईश्वर, तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं। तुम चाहते हो कि मैं नौकरी भी करूँ तो तुम्हारी शर्तों पर। तुम अहमियत की बात कर रहे हो। तुम मुझसे मुँह खोल कर कहो कि चंद्रा तुम नौकरी मत करो तो मैं नौकरी नहीं करूँगी। मुझे भले ही यह अच्छा न लगे। यदि मैं तुमसे कहूँ कि ईश्वर तुम नौकरी न करो तो तुम शायद ही मेरी बात मानो।'

'ऐसा भी कहीं हुआ है क्या?'

'नहीं हुआ है। मुझे मालूम है। तभी तो... '

बहस ऐसे ही समाप्त होती है, या बढ़ती ही चली जाती है, जब तक कि एक थक न जाए। यहाँ बात समझने की नहीं होती, मानने की होती है। दोनों को एक दूसरे के मन की बात का पता रहता है।
पिछले एक साल से कमोबेश यही चला आ रहा था। और यही चलता रहेगा, चंद्रा ने सोचा। हमारा व्यवहार इतना प्रेडिक्टेबल क्यों होता है? झगड़ा नहीं करना चाहते हैं, तो क्यों करते हैं? क्या हम अपनी इस मानसिकता पर कभी विजय पा सकेंगे?

साढ़े पाँच बज गए थे। कुमार के केबिन का दरवाजा अभी तक बंद था। आज फिर देर हो जाएगी, चंद्रा ने सोचा।

- अभी और है, जिसे मैं एक या दो दिन के अंदर अपलोड करने की चेष्‍टा करूँगा।