Saturday, December 27, 2008

खुली तिजोरी

हमारी संस्कृति कहती है अतिथि देवो भव। मेहमानों के साथ कैसा व्‍यवहार करना चाहिये यह हमें बचपन से ही सिखाया जाता है। आजकल ब्रांड-युग में लोग घुट्टी के बारे में नहीं जानते होंगे नहीं तो कहता कि अतिथि सेवा-सम्मान हमें घुट्टी में पिलाया जाता है। ऐसे अतिथि प्रेमी देश में सैलानी या टूरिस्ट किस श्रेणी में आते हैं? मेरा अनुभव है कि टूरिस्टों की श्रेणी ही अलग है। कुछ अपवादों को छोड़ कर टूरिस्ट खुली तिजोरी की तरह होते हैं। कोई भी उन्हें लूटने का अधिकार रखता है। पर्यटक को देख कर लोगों की बॉंछें खिल जाती हैं। उनके मुँह से लार टपकने लगती है। आश्चर्य में डालनेवाली बात यह है कि टूरिस्ट बेचारा तो खैर लुटता ही है पर लूटने वाले उस पर्यटनस्थल के आकर्षण का भी कोई आदर नहीं करते हैं। होटल हों या रेस्तरॉं, दुकानदार हों या फेरीवाले, गाइड हों या ऐजेंट कोई भी उस जगह की, उसके आकर्षण की उपेक्षा ही करता है जिससे उनकी रोजी रोटी चलती है। पर्यटक हो या पर्यटन स्‍थल, बस समान भाव से लूटो। लूटने वाले अनेक। पर अनेकता में एकता की भावना रहती है लूटने के प्रति।

अभी हाल ही में किसी कार्यवश देहरादून जाना पड़ा। देहरादून तक आ ही गये हैं तो सोचा मसूरी भी घूम आयें। होटल बुक नहीं किया था। सोचा दिसंबर का महीना है वैसे ही भीड़ कम होगी। मिल जायेंगे होटल। फिर एक गेस्टहाउस का रेफरेंस अपने पास था ही।

गेस्टहाउस निकला माल रोड से बहुत दूर। हमें दो दिन तो यहाँ रहना था। फिर इतनी दूर गेस्टहाउस में रहने में आने जाने में परेशानी होगी। यही सोच कर होटल में रहने का इरादा किया। टैक्सीवाले ने पहला होटल दिखाया जो पिक्चरहाउस के पास था। होटल बाहर से तो ठीक ही लगा। पर जब कमरा देखा तो वहाँ से भाग आया। कमरे का किराया था 2500 रुपये। दिसंबर में 50 प्रतिशत डिस्काउंट। पर कमरा इतना गंदा था कि वहाँ रहने का सवाल ही नहीं उठता था। होटल के मैनेजर ने पीछे से आवाज लगाई, 'साहब आपके लिये किराया 700 रुपये कर दूँगा।' पर गंदगी से कौन समझौता करे।

टैक्सीवाला दूसरे होटल ले गया। बाहर से होटल देख कर दिल खुश हो गया। कमरा दिखाया तो ठीक ही लगा। हमें दो ही रात तो ठहरना था। हमें बताया गया कि कमरा सुपरडीलक्स है। सीजन में रेट 3000 रु है। आफसीजन में 50 परसेंट डिस्काउन्ट। डिस्काउन्ट के ऊपर 20 परसेंट रीबेट। यानी कमरा 1200रु का पड़ा।

होटल का फॉर्म भरा। सामान कमरे में रखवाया। और मसूरी बाजार घूमने निकल पड़े। माल रोड पर एक रेस्तराँ में चाय और पकौड़े का आर्डर किया। टूटी प्याली में चाय आई। पकौड़े की प्लेट गंदी। पकौड़े देखने में तो ठीक थे पर खाने में लगा बेसन में बालू मिलाया गया है। दाम वही जो टूरिस्ट के लिये होते हैं। और यह हुआ मालरोड में सुसज्जित रेस्तराँ में।

मसूरी में पालीथीन वर्जित है। पर करीब 70 प्रतिशत दुकानदार धड़ल्ले के साथ आपको सामान पालीथीन बैग में ही देते हैं, इस टिप्पणी के साथ कि साहब पालीथीन तो यहाँ वर्जित है। हमें जुर्माना लग सकता है, फिर भी (अहसान मानिये कि) हम आपको पालीथीन कैरी बैग दे रहे हैं।

घूमफिर कर, थक कर होटल का कमरा खोलते हैं तो बदबू का ऐसा झौंका कि लगा कमरे में कचरे की गाड़ी पार्क कर रखी हो। रिशेप्शन से शिकायत की तो तुरंत एक आदमी बाल्टी और फेनाइल ले कर आ गया। उसने बताया कि इस कमरे में बाथरूम से बदबू आती है। अभी सब ठीक हो जायेगा।

जब वह ठीक करके गया तो पूरा कमरा फेनाइल की बहुत ही तेज महक से महकने लगा। लगा यह महक तो रात भर में भी जाने वाली नहीं।

कमरा बदलवाया। यानी कमरा नं 103 से 105 में गये। 105 में न बदबू थी और न फेनाइल की महक। पर बाथरूम गीला और गंदा था। बिस्तर पर चादर दागदार। तकिये के खोल मैले। शिकायत की तो नये चादर भिजवाये गये, जो पहले से अधिक गंदे थे। चादर लाने वाले लड़के से पूछा,
'क्यों भैया ये चादर धुले हैं न यूँ ही तह करके रख दिये गये हैं?'
'नही साहब, चादर धुले हुये हैं। देखिये न इस कोने में, धोबी ने चादर फाड़ रखा है।'
'फटा चादर क्यों बिछा रहे हो?
'चादर ठीक है साहब, बस थोड़ा कोने में फटा है।'
'और कितने दाग हैं इसमें!'
'सफेद चादर है साहब, थोड़े बहुत दाग तो रहेंगे ही।'
इस तरह निरुत्तर हो कर हमने हथियार डाल दिये। खैर। अब जो रजाई को देखा तो बहुत ही मैली निकली।

हमने सोचा सुपरडीलक्स कमरा है। एयरकंडीशन का टेंप्रेचर बढ़ा देंगे। रजाई की आवयश्यकता नहीं पड़ेगी। अब जो गौर से देखते हैं तो कमरे में एयरकंडीशन की कोई व्यवस्था ही नहीं।

रूम हीटर मंगाया। उसका चार्ज 100 रुपये अतिरिक्त। अब जो हीटर लगाते हैं तो वह इतने कम वाटेज का निकला कि एकदम नजदीक जाओ तो ही गरमी मिल सकती है। कमरे में दो हीटर लगाने चाहे तो हमें बताया गया कि दो नहीं लग सकते, क्यों कि कमरे का फयूज उड़ जाता है।

रात में ठंड से बचने के लिये रजाई ओढ़नी ही पड़ी। तब पता चला कि रजाई में पिस्सू हैं। आधे धंटे में ही रजाई उतार फैंकी और पाँव खुजाते हुये उठ खड़े हुये। किसी तरह रात बिताई। दूसरी रात के लिये हमने माल रोड से गरम कपड़े खरीद लिये थे।

बाथ रूम की अवस्था के बारे में आप स्वयं अंदाज लगा लीजिए। मैं बताने लगूँ तो यह लेख लंबा हो जायेगा।

सुबह आठ बजे चेकआउट के समय हिसाब मुझे एक चिट पर बताया गया। मैंने बिल माँगा तो मुझसे कहा गया कि बिल चाहिये तो आपको टैक्स देना पड़ेगा। मैंने कहा आप बिल अवश्य दीजिये। बिल बनवाने में आधा घंटा समय लगा क्यों कि बिल बनाने वाले साहब सो रहे थे। उन्हें जगा कर बिल बनवाया गया।

आजकल होटलों में बिना फोटो आइडी के कमरा मिलना असंभव है, विशेष कर मुंबई की दुर्धटना के बाद। पर मसूरी के इस होटल में तो बिना बिल के ठहराया जाता है। फोटो आइडी के संबंध में उन्हें मालूम तो होगा। पर जब बिना बिल के ठहराया जाता है तो रिकार्ड रख कर अपने ऊपर मुसीबत क्यों मोल ला जाय।

मसूरी में दो दिनों के प्रवास में मैं कई और अनुभवों से गुजरा हूँ। पर कोई इतना आश्चर्य में डालनेवाला नहीं है जितना मेरा होटल के संबंध में हुआ।

मसूरी के बारे में कहा जाता है 'पहाड़ों की रानी मसूरी', 'हिलस्टेशनों की रानी मसूरी'। मुझे नहीं लगा कि वहाँ लोग दिल से मसूरी पहाड़ों की रानी मानते हैं। यह सैलानियों को भ्रम में डालने का तरीका अधिक लगता है, नहीं तो क्‍या कोई रानी के साथ दुव्‍यवहार करता है! मसूरी के साथ दासीवत् व्यवहार होता है। और टूरिस्टों के लिये तो यह अलिखित नियम लगता है कि अवसर मिला है मत चूको, जितना लूट सको लूटो।

- मथुरा कलौनी

Tuesday, December 23, 2008

ऐसे कुछ अशआर चाहिये

इधर कुंठा उधर त्रास है
आँखें वीरान मन नीराश है
डरे सहमे से दिन हैं
काली डरावनी हैं रातें
भटके हुओं को राह दिखाये
ऐसे कुछ चिराग चाहिये
सोते हुओं को जगाये
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

ऊँची दीवारें हैं खिड़कियॉं हैं तंग
निकलने के रास्‍ते हो गये हैं बंद
हताशा में है जीवन
घुट रही है मानवता
सीलन को दूर करे
ऐसी एक आग चाहिये
इस आग को हवा करें
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

दुश्‍मन तो जाना पहचाना है
यारों से कौन बचाये
खुशगवार चेहरे में
जो हैं रकाबत छिपाये
इस बार जो मौसम बदला
जाड़े ठहर गये
जमे रिश्‍ते जो पिघला दे
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

हाथों में थाम कर मशाल
बढ़ रहे हैं पुआल की ओर
ऐसे नासमझ तो न थे फिर
क्‍यों जा रहे हैं विनाश की ओर
इस बार जो हुआ है आर्तनाद
सब के सब सिहर गये
आशा की किरण दिखाये
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

मोहब्‍बत की है तुमसे
उल्‍फत की रस्‍में भी निभायेंगे
तेरे शहर में अब आये हैं
प्‍यार तो जतायेंगे
तेरी जुबान में ही सही
हमें तो बस संवाद चाहिये
मेरी बात तुम तक पहुँचे
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

चिकने पत्‍ते पर ठहरी है
जिन्‍दगी बूँद ओस की
इस बदहवासी में करें
कैसे बातें होश की
बहुत परेशान हैं हम
कसमकश है जीने की
पॉंव में छाले हैं
कुछ तो ठहराव चाहिये
घावों में मलहम लगाये
ऐसे कुछ अशआर चाहिये

मुझे बारिश की बूँदें
सूरज की तपिस चाहिये
खुली हवा में सॉंस
मेरे सपनों का गॉंव चाहिये
कुँए की जगत में ठॉंव चाहिये
मुझे मेरे हिस्‍से का चॉंद चाहिये
बहुत हो चुकीं रुखसारोजमाल की बातें
अब तो बस इन्‍कलाबी अशआर चाहिये

मथुरा कलौनी

Friday, December 5, 2008

गोल्‍डक्‍लास में फैशन




मैंने जब सिनेमा देखना आरंभ किया था तो कलकत्‍ते के एक फटीचर हाल में पर्दे के एकदम सामने की टिकट पाँच आने में आती थी। स्‍कूल गोल कर कितनी पिक्‍चरें वहॉं देखी थीं! लड़कपन पार कर जब कालेज में दाखिला लिया तो अपने को अपग्रेड किया तथा बालकनी में पिक्‍चर देखना आरंभ किया। आजकल मल्‍टीप्‍लेक्‍स का जमाना है। डेढ़ सौ रुपये दे कर पिक्‍चर देखनी पड़ती है। यहॉं तक तो ठीक है। पर आज तक कोई मुझे पॉंच सौ रुपये दे कर गोल्‍डक्‍लास मल्‍टीप्‍लेक्‍स में सिनेमा देखने के लिये मजबूर नहीं कर सका। पर जब उपहार स्‍वरूप पॉच-पॉंच सौ की दो टिकटें मिलीं तो सोचा चलो यह अनुभव भी सही।

तो साहब हम भी सपत्‍नीक गोल्‍डक्‍लास में पिक्‍चर देखने पहुँचे। हाल में लोग बहुत कम थे जो स्‍वाभाविक ही है। लोग इतनी मँहंगी टिकट ले कर क्‍यों सिनेमा देखने लगे जब कि बगल के हाल में वही पिक्‍चर डेढ़ सौ रुपयों में देखी जा सकती है।

हॉल में सीटें इतनी बड़ी कि एक सीट में दो समा जॉंय। सीट में बैठना तो असंभव था। या तो आप अधलेटे बैठिये या पूरे ही लेट जाइये। सीट में कंबल भी रखा हुआ था। कई लोग तो कंबल ओढ़ कर लेट गये थे। चलो पिक्‍चर बोर हुई तो आप तीन घंटे की नींद ले सकते हैं।

अब लेट कर पर्दे की ओर देखा तो पाया कि पर्दे का निचला हिस्‍सा तो आराम से दिखता है पर पर्दे का ऊपर का हिस्‍सा देखने के लिये सिर को पीछे की ओर करना पड़ता है जो गरदन के लिये कड़ा ही कष्‍टप्रद कोंण है। हॉल की सीटें श्रीमती जी को बहुत हास्‍यास्‍पद लग रही थीं। हँसते-हँसते उनका बुरा हाल हो रहा था। पिक्‍चर समाप्‍त होने पर हमें एक दूसरे को सहारा देकर सीट से उठाना पड़ा था। वे प्रसन्‍न थीं कि चलो इस अवांछनीय अनुभव पर कम से कम टिकटों पर अपना पैसा नहीं खर्च करना पड़ा।

वहॉं हाल में ही खाने पीने की भी व्‍यवस्‍था है। हरएक सीट में एक-एक साइड टेबल लगा था जिसमें मीनू कार्ड भी रखा हुआ था। पत्‍नी से सलाहमशवरा कर दो सैंडविच और एक बोतल पानी का आर्डर दिया। हॉल के धुँधले प्रकाश में दाम ठीक से दिखे नहीं। बिल आया पॉंचसौ एकतीस रुपये! पॉंच सौ एकतीस रुपये किस बात के! न स्‍वाद, न सर्विस, न वातावरण। उनकी हँसी एक गंभीर सोचमुद्रा में बदल गई।

अब आते हैं पिक्‍चर पर। पिक्‍चर थी फैशन। हमदोनों को पिक्‍चर बहुत पसंद आई। चलो कम से कम पिक्‍चर अच्‍छी लगी। शाम पूरी बेकार नहीं गई। पिक्‍चर अच्‍छी तो थी पर एक बात कहना चाहूँगा कि पूरी पिक्‍चर में कई सीन ऐसे थे जिनमें युवतियॉं बहुत कम वस्‍त्रों में रैंप पर इठला रही थीं। और लगभग पूरी पिक्‍चर में कैमरे का फोकस नीचे ही रहा था। अब आप अंदाज लगा सकते हैं कि मैं कैसे अनुभव से गुजरा। सीट में अधलेटा बैठने के बाद वैसे ही पर्दे के ऊपरी भाग को देखने में कष्‍ट हो रहा था ऊपर से पूरी पिक्‍चर में कैमरे का लो-ऐंगल! नहीं-नहीं मैं आपत्ति नहीं कर रहा हूँ मैं तो केवल अपना अनुभव आपके साथ बॉंट रहा हूँ।