Friday, February 6, 2009

गंदगी उलीचने के बहाने

आजकल भारतीय संस्‍कृति को लेकर लोग बहुत परेशान हैं। मैं भी परेशान हूँ। आजकल 'पब कल्‍चर' की बात चल रही है। मुझे तो ये शब्‍द ही समझ में नहीं आते हैं। पब में जाना पब कल्‍चर कहलाता है तो जो रेस्‍तरॉ में जाना क्‍या कहलायेगा। सिनेमा कल्‍चर कभी सुनने में नहीं आया। भारतीय संस्‍कृति दस हजार वर्षों से भी अधिक पुरानी है। तब न सिनेमा थे न रेस्‍तरॉ। आज भारतीय संस्‍कृति को इनके दुस्‍प्रभाव से बचाने के लिये कोई सेना क्‍यों नहीं है।

यदि हम अपने को वाह्य प्रभाव से बचा कर कूपमंडूक बन जायें तो बसुधैवकुटुम्‍बकम् का राग हम कैसे आलाप सकते हैं!

10000 साल पुरानी संस्‍कृति की रक्षा करने के लिये क्‍या हम उस युग के वल्‍कल वस्‍त्र धारण कर लें।

हमारी आदि नारियॉं सोमरस का पान करती थीं। यज्ञ में भाग लेती थीं। हमारे वेदों की कई त्रऋचायें उन्‍हीं ने रची थीं। यदि वे हमारी संस्‍कृति का अंग हैं तो आज कुछ लड़कियों के पब में जाने से भारतीय संस्‍कृति कैसे डांवाडोल होने लगी!

कई सेनायें खड़ी हो गई हैं हमारी संस्‍कृति को बचाने के लिये। पर संकट किससे है!!

ऐसे ही कई सवालों से परेशान हूँ। इस परेशानी में यह कविता बन पड़ी है...



कब तक...

यथार्थ से दूर
आदर्श से परे
थोथे सिद्धांतों के
नारे लगाते रहे।
गंदगी उलीचने के बहाने
गंदगी में जीते रहे।

न समेट पाए साहस इतना
अपनी निरर्थकता से
दो चार हो सकें।
मुख आइने में देखते
अपने से आँखें चुराते रहे।

जिसकी भी लाठी रही
वह भैंस खोल कर ले गया।
चलता है चलता रहेगा
यह राष्ट्रगीत हम गाते रहे।

राम की आयोध्या
राम का मंदिर
राम का नाम हम भुनाते रहे।
राम जब भी आए
बनवास उनको हम देते रहे।

मथुरा कलौनी

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