Thursday, April 16, 2009

बेतुकी तुकबंदी और मंच की कैद

कहानी व्यंग्य लेख नाटक कोई भी विधा हो, सामने कोरा कागज हो और हाथ में लेखनी हो तो कुछ न कुछ बन ही जाता है। उससे भी बढ़िया सामने कंप्यूटर हो तो क्या बात है। दस बार लिखो, दस बार डिलीट करो, कोई सबूत नहीं रहता कि आपने एक पेज लिखने में कितनी बार काटा छाँटा या कितना समय बरबाद किया। आत्मविश्वास के लिये बहुत आवश्यक है कि अपना लिखा हुआ अपने ही द्वारा कटा न मिले। और फिर जब लोग आपको लेखक समझते हैं तो हमारा भी धर्म बनता है कि उनकी यह धारणा बनी रहे कि हम कलम घिस्सू लेखक नहीं हैं।

पर कविता के मामले में हम मार खा जाते हैं। कविता रचने की सोचते ही नानी मरती है। चार पंक्तियों की तुकबंदी लिखने में चार हफ्ते लग जाते हैं। और जो बनता है वह इतना बेतुका ही होता है कि लगाये न लगे बनाये न बने।

पर क्या करें! लोगों की धारणा है कि आप लेखक हैं तो कविता अवश्य लिखते होंगे। उनके इस विश्वास को ठेस न पहुँचे, हम कविता रचने को वाध्य हैं। विश्वास कीजिये हमारी प्रत्येक कविता के पीछे महीनों की मेहनत और परेशानी है। जब कविता तैयार हो जाती है तो लगता है, गुलज़ार जी के शब्दों में , 'कहीं तवाज़न बिगड़ गया है तो कहीं सीवन उधड़ गई है'। टिप्पणियाँ भी मिलती हैं - 'कलौनी जी, भाव बहुत अच्छे हैं, यदि आप स्केल पर ध्यान दें तो बहुत अच्छा हो'। भैया हम तो पहले से ही कबूल किये बैठे हैं कि हम कोई कवि-ववि नहीं हैं। काहे का स्केल और काहे का मीटर! आपको हमारे पद्य में गद्य नजर आता है तो अच्छा है न! हम हैं तो गद्य लेखक ही। जब हम पहले ही हथियार डाले बैठे हैं तो आप काहे को घाव में नमक मल रहे हैं।

शहर की काव्य गोष्ठियों में भी जाना ही पड़ता है। स्थिति से बचने की हमारी रणनीति रही है, देर से जाओ और बहाना बना कर जल्दी निकल आओ। सिर पर बिजली गिरी जब हमने पाया कि हमारे दुश्मनों ने साजिश रच कर हमें साहित्यिक संस्था का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया है। और यह साहित्यिक संस्था हार्डकोर कवियों की संस्था है। जब भी काव्यगोष्ठी होती है वे हमें बुलाते हैं और मंच पर बिठा देते हैं। मंच का कैदी, अब न देर से आ सकता है और न जल्दी खिसक सकता है। ऊपर से बेसुरे कवियों की बेतुकी तुकबंदी। यातना ही यातना। :(
कितने ही उपाय किये, कितने जतन किये कि कविता से हम कितना ही दूर क्यों न भागें, कविता हमारा पीछा नहीं छोड़ती। कभी कभी सोचते हैं कविता हाडमांस वाली कविता क्यों न हुई!