Saturday, November 28, 2009

वो बस मुस्कराये और जाँ निकल गई

श्रीमती जी को बेटी दामाद से मिलने की प्रबल इच्छा हुई। मुझसे कहा गया मैं जाती हूँ दुबई। एक महीने के बाद लौटूँगी। तब तक तुम मेरी बिल्लयों की देखभाल करना। मैं अकेला और मेरे साथ दो बिल्लियाँ। बस समझ लीजिये एक महीने तक यही चलेगा। बिल्लियाँ न होती तो मैं 'खोया खोया चाँद खुला आसमाँ' हो जाता। पर क्या करें बिल्लियाँ हैं और उनका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। पर जब आप एकाकीपन महसूस करते हैं तो बिल्लियों की संगत पर्याप्त नहीं होती। दो टॉग वाले प्राणियों की कमी खलने लगती है। वर्षों पहले लगभग ऐसी ही स्थिति थी जब मैं अकेला बैठा घर में लगभग बोर हो रहा था। उसी बोरियत में मैंने एक कविता लिखी थी

बैठा हूँ आज अकेला मैं
संध्या की बेला है और हाथ में हे मय
और कर रहा हूँ याद
बीते दिनों को हो कर तन्मय

इन चार पंक्तियों को छोड़ कर बाकी की कविता मैंने पहले ही यहाँ पोस्ट कर रखी है।

सोचा कुछ नया लिखूँ। चलो कविता ही सही। कौई मौजूँ विषय? - हाँ क्यों नहीं।
प्यार? - इससे बढ़ कर मौजूँ और क्या हो सकता है!

याद आया कि प्यार पर भी कुछ पहले ही पोस्ट कर चुका हूँ।
ऐसा क्यों होता है कि जिस विषय पर आप लिखना चाहते हैं आप पहले ही लिख चुके होते हैं!

पर प्यार में नया लिखने की बहुत संभावनाएँ हैं।

हजारों लाखों बार परिभाषित होते हुए भी आप पूछने के लिये वाध्य होते हैं कि आखिर है क्या यह प्यार?



इस विषय में हमारे भारत से अधिक जानकार कोई देश नहीं हो सकता। यहॉं साल में कई हजार करोड़ की लागत से साल में 2000 से अधिक फिल्में बनती है। सबका विषय एक ही है प्यार। फिर भी पूछने का दिल करता है कि आखिर है क्या यह प्यार?



60-70 वर्ष से हमारी फिल्में हमें प्यार के बारे में बता रही हैं कि प्यार किया नहीं जाता बस हो जाता है। पर कैसे होता है किसी को नहीं मालूम। Cause and effect वाला सिद्धांत यहाँ लागू नहीं होता। नायक गुफा कुदराओं से, रेगिस्तान से, बर्फीली चोटियों से, आस्‍ट्रेलिया से, अफ्रीका से दहाड़ता है कि प्यार हो गया है। कैसे हुआ, न तुम जानो, न मैं जानूँ। प्रेमी या प्रेमिका भले ही एक दूसरे की आगोश में आ जाय, पर प्यार पकड़ में नहीं आता है।
शायर लोग प्यार के मामले में बहुत कुछ कह गये हैं जिसका अर्थ न वो समझे हैं न किसी और को समझ में आता है। किसी शायर ने कुछ ऐसा भी कहा है 'अभी नादां हो, दिल रखा है तुम्हारे ही लिए, ले जाना जवाँ हो कर।' यह तो सीधे जेल की तरफ ले जाने वाला प्यार है।
प्यार की कुछ रूपों का मुलाहिजा फरमाइए
कॉल सेंटर वाला अपरिपक्व प्यार
जनम जनम का साथ वाला प्यार
जज्बये दिल किसे पेश करूँ वाला प्यार
जज्बये दिल कैसे पेश करूँ वाला प्यार
दिल चाहता है में अक्षय खन्ना वाला प्यार
वैलेन्टाइन डे वाला प्यार।

प्यार पर नीरक्षीर विवेचन होना चाहिये। क्या प्यार है, क्या नहीं है। जैसे, क्या क्षणिक आकर्षण प्यार है? क्या वासना रहित प्यार प्यार है? इत्‍यादि

प्यार पर मेरी एक सद्य:रचित कविता मुलाहिजा फरमाइए

न कहीं खून बहा, न चोट कोई,
वो बस मुस्कराये और जाँ निकल गई

फैशन की महफिल में हसीनों के जलवे थे
पर वाह रे तेरी सादगी, मीठी छुरी चुभो गई

देर में जाना फैशन का एक अंदाज है सादगी
खामखाँ लौ में एक पतिंगा जल गया है कोई

हमें तो इश्क हुआ, खेल इसको समझते हैं वो
हम बिरहा गा रहे हैं, मल्हार गा रहा है कोई

बेगैरत हम भी न थे क्यों जाते उसकी गली
वो तो बेखुदी थी जो हमें वहाँ तक ले गई

गीली रेत पर बना तो दिया है दिल
अब है इंतजार लहर जल्दी से आये कोई

Saturday, November 14, 2009

उसके बारे में

सभी जानते हैं उसके संबंध में लेकिन कोई भी उसका नाम अपनी जुबान पर नहीं लाता। नाम उच्चारण करने में बहुत अश्‍लील लगता है। पहले तो बड़े बड़े साइन बोर्डों में, नगरपालिका की दीवारों पर और सिनेमा के पर्दे पर ही उसका नाम दिखाई पड़ता था पर जबसे टेलीविजन लिया है ठीक बैठक के कमरे में उसके बारे में देखने और सुनने को मिलता है। लिहाजा मोहन चिंतित है।

मोहन की दो पुत्रियॉं हैं। एक नौ साल की है और दूसरी छह साल की। दोनों ने टी वी पर आने वाले सभी विज्ञापन याद कर रखे हैं। टूथपेस्ट के बारे में हो या प्रेसर कुकर के बारे में, घड़ी के बारे में हो या आम के अचार के बारे में, कोई भी ऐसा विज्ञापन नहीं जो उन दोनों को याद न हो। दोनों लड़कियॉं समवेत कंठ से टी वी के साथ साथ विज्ञापन की पंक्तियॉं दोहराती हैं। इन्हीं विज्ञापनों में एक उसके बारे में भी होता है। इस विज्ञापन को भी दोनों लड़कियॉं निश्‍छल भाव से दूसरे विज्ञापनों की तरह ही दोहराती हैं।

मोहन और उसकी पत्नी जब उन दोनों के मुँह से उस विज्ञापन को सुनते हैं तो ऐसा दिखाते हैं जेसे सुना ही न हो। ऐसा साहस उन दोनों में से किसी को भी नहीं है कि लड़कियों को मना कर सकें कि उस विशेष विज्ञापन को न दोहरायें। मना करने का कोई कारण भी नहीं सूझता उन दोनों को। इस डर से उनकी नींद हराम हो गयी है कि अगर दोनों में से किसी ने कुछ पूछ दिया कि वह क्या होता है तो वे क्या उत्तर देंगे! पत्नी के सामने तो मो‍हन बहुत बहादुर बनता है, किन्तु उस संभावित प्रश्‍न का उत्तर उसे नहीं सूझता।

'क्या उत्तर देंगे?' पत्नी पूछती है।

'सच बता देना। हर्ज ही क्या है!' मोहन कहता है।

'इतनी कच्ची उमर में क्या वह ठीक समझ पायेंगे! बेकार में गलत दिशा में उनका घ्यान खींचना ठीक होगा? मैं तो कुछ झूठ बोल कर बात टाल दूँगी।'

'नहीं नहीं बच्चों से झूठ नहीं बोलना चाहिये। फिर बच्चे भी तो कुछ समझते हैं ही, तुरन्त पकड़ लेंगे कि झूठ बोला जा रहा है। वे सोचेंगें ऐसा क्या है जो छिपाया जा रहा है। ऐसे में वे इस पर गलत तरीके से सोचेंगे। सच ही बोलना चाहिये।'

'कैसे?' पत्‍नी पूछती है।

'सच जैसे बोलते हैं। वैसे बाहर के देशों में तो इस संबंध में स्कूल में ही बता देते हैं।' मोहन का कहना था।

वे दोनों इसी तरह की बातें करते लेकिन इस समस्या का समाधान कैसे करेंगे इस विषय पर उनकी कोई सुलझी हुई धारणा नहीं थी। सब गोल था। उनकी किस्मत अच्छी थी कि उन दोनों में से किसी ने अभी तक उसके बारे में नहीं पूछा था। वे टी वी के साथ विज्ञापन को दोहराती थीं बस।

किस्मत अच्छी थी केवल अब तक। अब छोटी ने उन्‍हें चिन्ता में डाल दिया था। कहने का अर्थ है कि पहले से अधिक चिन्ता में डाल दिया था। संभावित प्रश्‍न के पूछे जाने की संभावना अचानक बहुत अधिक बढ़ गयी थी। छोटी इस संबंध में बहुत कुछ सोच रही थी। उसकी बातों से यही लगता था। एक दिन उसने अपनी मॉं से पूछा था, 'मम्मी हम लोग दो ही हैं, दीदी और मैं। कितना अच्छा है न। तीन होते तो तुमको कितना कष्‍ट होता? खाने की मेज में जगह नहीं होती और सोने के लिये भी एक और पलंग लगाना पड़ता!'

और एक दिन उसने मोहन से कहा 'पापा स्कूटर में मम्मी और दीदी तो पीछे बैठते हैं और मैं सामने खड़ी होती हूँ। हम लोग तीन होते तो तुम क्या करते? तीसरे बच्चे को कहॉं बिठाते?'

उनके एक पड़ोसी के पॉंच बच्चे हैं। परिवार नियोजन के बारे में बेचारे को तब मालूम हुआ जब बहुत देर हो गयी थी। मोहन की छोटी मुन्नी उन बच्चों के बारे में बहुत चिन्तित थी। कई बार कह चुकी थी कि वे बेचारे एकसाथ बैठकर खाना नहीं खा सकते, एकसाथ पिक्चर नहीं जा सकते इत्यादि।

मोहन और उसकी पत्‍नी हम दो हमारे दो से संतुष्‍ट थे। छोटा परिवार सुखी परिवार। मुन्नी के इन नये प्रश्‍नों से एक नया डर पैदा कर दिया है उनके मन में। जिसको अभी तक असंभव किये बैठे हैं कहीं संभव हो गया तो क्या होगा? क्‍या मुँह दिखाऍंगे इन बच्‍चों को!

खैर यहॉं बात उसके बारे में हो रही थी जिसका विज्ञापन उनकी पुत्रियॉं टी वी के साथ दोहराती हैं। इस संबंध में एक दिन उनका डर साकार हो ही गया। टी वी में विज्ञापन आया। दोनों ने एक साथ दोहराया सुखी वैवाहिक जीवन के लिये ...............। छोटी दौड़ती हुई अपनी मॉं के पास गई और उसने पूछा, 'मम्मी वह क्या होता है?'

यह घटना रसोईघर में हुई। मोहन बैठक से सब देख रहा था। उसने देखा कि उसकी पत्नी सकपका गई है। प्रश्‍न संभावित अवश्‍य था। लेकिन पत्नी को आशा नहीं थी कि यह पहले उसीसे पूछा जाएगा। वह तैयार नहीं थी। सारी प्लानिंग धरी की धरी रह गई। उसने कहा, 'मुझे काम करने दो मुन्नी, जाओ खेलो।'

'क्या मम्मी इतनी रात को भी कोई खेलता है? बताओ न वह क्या होता है?'

'बेटा ऐसा होता है न कि जब अस्पताल में बच्चे पैदा होते हें तो....तो...देखो मेरी रोटी जल गई। मैं बाद में तुमको बता दूँगी हॉं। अभी मुझे खाना बनाने दो।'

'नहीं मम्मी अभी बताओ।'

'कहा ना बाद में बता दूँगी।' मुन्नी को डॉंटते हुए पत्नी ने कहा।

'मुन्‍नी को क्यों डॉंटती हो?' मोहन ने कहा। 'डॉंटना ठीक नहीं है। उसे बता दो। उसकी जिज्ञासा शांत कर दो बस।'

'मुन्‍नी बेटा ऐसा करो अपने डैडी से पूछ लो।' मोहन की पत्नी ने कहा।

मोहन को इसकी आशा नहीं थी। मुन्नी दौड़ती हुई उसके पास गई और उसने पूछा, 'पापा मम्मी नहीं बता रही है। तुम बताओ न वह क्या होता है?'

'मुन्‍नी अपनी मम्मी से बाद में पूछ लेना। देखो मैं अभी कुछ पढ़ रहा हूँ।' मोहन ने बचने का प्रयत्न किया।

'नहीं नहीं अभी बताओ।' मुन्नी ने जिद की और मोहन ने बताना आरंभ किया।

'बेटा ऐसा होता है न कि ....' इसके आगे मोहन की समझ में नहीं आया कि वह क्या बोले। फिर साहस करके आगे कहा। 'ऐसा होता है न कि अस्पताल होता है जहॉं बच्चे पैदा होते हैं...।' इसके बाद उसने अस्पताल और उसकी बिल्डिंग का लंबा चौड़ा विवरण प्रस्तुत किया इस आशा से कि मुन्नी अपना प्रश्‍न भूल जाएगी। वह भूलती भला। उसने कहा 'पापा तुम ठीक नहीं बता रहे हो बताओ न वह क्या होता है?'

'मुन्‍नी मुझे नहीं मालूम है।' मोहन ने हथियार डालते हुये कहा। उसे यह डर लगा हुआ था कि कहीं बड़ी लड़की भी न पहुँच जाय जो अभी टी वी देखने में व्यस्त थी।

'तुम बुद्धू हो और मम्मी भी बुद्धू है। मुझे मालूम है कि वह क्या होता है।' मुन्नी ने उछलते हुये कहा।

पत्‍नी रसोई से बाहर आ गई। दोनों ने एक स्वर में मुन्नी से पूछा, 'तुम क्या जानती हो उसके बारे में?'

'उससे परिवार नियोजन होता है।' मुन्नी ने कहा।

Thursday, November 12, 2009

एक पल



यह नि:शब्द रात यह स्वच्छ चांदनी पेडों पर
यह झींगुर का बोलना यह मेढक की टर्र टर्र
शहर के कोलाहल से दूर इस गांव में
क्या यह स्वर्ग उतरा है धरती पर

यह तारों भरा आसमान यह मधुर मंद बयार
हौले हौले से उडते ये तुम्हारे केश अपार
यह चांदनी कितनी रहस्यमय लगती है तुम पर
प्रिये टहरो, बैठ जाओ उस पत्थर पर

यह चंचल नयन तुम्हारे लिए एक मंद हास
कर रहे शरारत होंठ बोलने का है कुछ प्रयास
क्यों न भूलें भूत औ भविष्यत हम
यही तो है पल इसी के लिए जींएं हम

आगे तो मिलेंगे नित्य जीवन के झमेले
कल तो आयेंगे छोटे बडे दुखों के मेले
चलो बदल डालते हैं समय काल का विधान
बनाते हैं एक आयु इसी पल को खींच तान

मथुरा कलौनी

Thursday, November 5, 2009

अलोहा

कभी कभी अपराध बोध होता है कि मैंने बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। अधिकतर सोच में पड़ जाता हूँ कि लिखूँ तो क्या लिखूँ। यह कंप्यूटर की देन है कि मुझे RSI व्याधि है। यानी देर तक कीबोर्ड प्रयोग करने पर मेरे हाथ में दर्द होने लगता है। मैं मन को सांत्वना दे लेता हूँ कि मुझे नहीं लिखने का बहाना ढ़ूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। अरे विषय मिल भी जाय तो क्या हुआ, टाइप तो नहीं कर पाऊँगा न! हाथ में दर्द जो होने लगेगा!

पर पढ़ने में जो कोई बाधा नहीं। न सृजन की व्यथा, न RSI । तो साहब जब मुझे लिखना चाहिए और जब मैं लिखने के लिये समय निकालता हूँ तो लिखने से जान छुड़ाने के लिये मैं ब्लॉग पढ़ता हूँ। विशेष कर टिप्पणियाँ पढ़ने में मुझे बहुत आनंद आता है। मैंने पाया है कि अँंग्रजी ब्लागों में लोग रचना या विषय से अभिभूत हो कर टिप्पणी करते हैं या अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। हिन्दी ब्लॉगों के टिप्पणीकार थोड़ा हट कर हैं। अधिकांश तो रचना का एक अंश copy paste कर लिखते हैं 'बहुत खूब'। कुछ केवल 'बहुत बढ़िया' लिख कर खिसक लेते हैं। यह 'बहुत खूब' या 'बहुत बढ़िया' बिल्ली के म्याऊँ जैसा है। पता ही नहीं चलता कि म्याऊँ में क्या छिपा है, प्यार, गुस्सा, तारीफ या गाली। बहुत कुछ होनोलूलू के 'अलोहा' जैसा। पहले लगा कि वहाँ स्वागत में 'अलोहा' कहते हैं। पर शीघ्र ही पता चला कि आओ तो 'अलोहा', जाओ तो 'अलोहा', खाओ तो 'अलोहा' कुछ नहीं करो तब भी 'अलोहा'।
ऐसे ही साहब मुझे हिन्दी ब्लॉगों की 'बहुत खूब' या 'बहुत बढ़िया' टिप्पणियाँ लगती हैं।

मजे की बात यह है कि ये 'बहुत खूब' या 'बहुत बढ़िया' टिप्पणियाँ लिखने वाले प्राय: हिन्दी के हर ब्लॉग में मिल जाते हैं। ऐसा लगता है कि टिप्पणी लिखने वाला यह दृढ़ निश्चय कर कंप्यूटर खोलता है कि कल मैंने 175 टिप्पणियाँ दी थीं आज कमसेकम 200 टिप्पणियाँ तो अवश्य दूँगा।

आप पूछेंगे कि ऐसी टिप्पणियाँ पढ़ने में मुझे क्या मनोरंजन मिलता है।

मैंने उन टिप्पणीकारों के नाम नोट कर रखे हैं। मुझे लगता है कि कहीं न कहीं ये टिप्पणीकार सजग हो जाते हैं कि भैया मैंने आज 50 जगह 'बहुत खूब' लिखा है और 55 जगह 'बहुत बढ़िया'। कहीं कोई पकड़ न ले या शायद थोड़ा अपराध बोध हो कि मैंने तो ब्लॉग पढ़ा ही नहीं और बिना पढ़े ही 'बहुत बढ़िया' टीप दिया तो वे copy paste 'बहुत बढ़िया' या copy paste 'बहुत खूब' टीप मारते हैं।

ऐसा नहीं कि ऐसे टिप्पणीकार ब्लॉग पढ़ते ही नहीं। कभी कभी जल्दी में पढ़ भी लेते है। अब समझने का झंझट कौन उठाये। आज का टारगेट 200 टिप्पणियाँ जो हैं। तो साहब 'बहुत खूब' या 'बहुत बढ़िया से सेफ टिप्पणी और क्या हो सकती है।

इससे अच्छा खेल क्या हो सकता है कि आप अनुमान लगायें कि भैया इसने तो ब्लॉग पढ़ा है या केवल सरसरी निगाह से देखा है, या एकदम पढा ही नहीं है।

अलोहा।