Thursday, November 12, 2009

एक पल



यह नि:शब्द रात यह स्वच्छ चांदनी पेडों पर
यह झींगुर का बोलना यह मेढक की टर्र टर्र
शहर के कोलाहल से दूर इस गांव में
क्या यह स्वर्ग उतरा है धरती पर

यह तारों भरा आसमान यह मधुर मंद बयार
हौले हौले से उडते ये तुम्हारे केश अपार
यह चांदनी कितनी रहस्यमय लगती है तुम पर
प्रिये टहरो, बैठ जाओ उस पत्थर पर

यह चंचल नयन तुम्हारे लिए एक मंद हास
कर रहे शरारत होंठ बोलने का है कुछ प्रयास
क्यों न भूलें भूत औ भविष्यत हम
यही तो है पल इसी के लिए जींएं हम

आगे तो मिलेंगे नित्य जीवन के झमेले
कल तो आयेंगे छोटे बडे दुखों के मेले
चलो बदल डालते हैं समय काल का विधान
बनाते हैं एक आयु इसी पल को खींच तान

मथुरा कलौनी

1 comment:

निर्मला कपिला said...

आगे तो मिलेंगे नित्य जीवन के झमेले
कल तो आयेंगे छोटे बडे दुखों के मेले
चलो बदल डालते हैं समय काल का विधान
बनाते हैं एक आयु इसी पल को खींच तान
बहुत सुन्दर अभि वौक्ति है शुभकामनायें