Wednesday, January 27, 2010

हाई वोल्ट वाली जानलेवा मुस्कान

चेहरा सुदर्शन हो और भोलापन लिये हुये हो तो यह अच्छे नाक-नक्श और भोलेपन का यह मेल बड़ा जानलेवा सिद्ध हो सकता है। चेहरा देख कर ही इनके सौ खून माफ कर देने को दिल करता है। यहाँ पर उनकी बात नहीं हो रही है जो बड़े जतन से भोलापन ओढ़े रहते है जिनके बारे में कहा गया है कि 'भोली सूरतिया दिल के बड़े खोटे इत्यादि। हम बात कर रहे है उनकी जिनका भोलापन जन्मजात होता है। यह और बात है कि वे अपने इस भोलेपन की शक्ति को जानते हैं और इसका प्रयोग भी करते हैं।

ऐसे ही एक युवक हमारी कलायन नाट्य संस्था में भी हैं। आजकल हमारी नाट्य संस्था दो नाटकों के बीच में है। यानी पिछले नाटक का मंचन हो चुका है और अगला अभी आरंभ नहीं हुआ है। बड़ा ही कष्टप्रद और उलझाने वाला होता है यह समय। अन्य नाट्य संस्थाओं में भी शायद ऐसा होता हो हमारी संस्था में तो ऐसा होता ही है कि सभी कलाकार मंच पर अभिनय करने के इच्छुक रहते हैं। नाटक को मंच तक लाने में जो पापड़ बेलने पड़ते हैं उससे उनको कोई मतलब नहीं होता है।

कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी कुछ करने की इच्छा बड़ी बलवती होती है, और बहुत कुछ कर गुजरने की क्षमता भी रखते हैं पर अपनी इसी इच्छा को ही वे अपनी उपलब्धि मान बैठते है। ये सज्जन भी ऐसे ही हैं। यह तथ्य स्वीकारने में मुझे बहुत कष्ट होता है पर करने के लिये मुझे वाध्य किया जा रहा है। कैसे?

लिहाजा फरमाइये।

बहुत पहले ही तय हो गया था कि अगला नाटक चंद्रकान्ता होगा। नाटक तो मैंने बहुत पहले ही लिख लिया था पर मंचन के लिये यथेष्ट साहस नहीं जुटा पा रहा था। कलायन सभी ने सदस्यों ने भरपूर सहयोग देने का तो वादा किया है पर मैंने अपने अनुभव से सीखा है कि ऐसे वादों का अर्थ यह निकलता है कि 'आप आगे बढ़िये अभिनय करने के लिये हम तैयार हैं'।

इंद्रिय शिथिलता कहिये या कुछ और कि मैं नाटक आरंभ नहीं कर पा रहा था।

फिर मैं ने सोचा यह जो सभी भरपूर सहयोग का वादा कर रहे हैं इसका लाभ उठाना चाहिये। मैंने इन सुदर्शन व्यक्तित्व वाले सज्जन के जिम्मे एक काम सौंपा। वह था, नाटक चंद्रकान्ता के लिये टेकनिकल टीम का गठन करना। पिछले अक्टूबर से वे इस काम में लगे हैं। पर दिसंबर तक टीम नहीं जुटी। कभी पूछा कि क्यों भई काम कितना आगे बढ़ा तो उत्तर मिलता था कभी 'मैं फलाँ से बात करनेवाला हूँ' तो कभी 'मैं सोच रहा हूँ फलाँ को आजमाया जाय।'
मैं कहता ' भई दिसंबर जाने वाला है, ऐसे तो नाटक आरंभ होने में बहुत देर हो जायेगी।'
इसके उत्तर में एक हाई वोल्ट की जानलेवा मुस्कान। और मैं चारों खाने चित।

मुझे विश्वास है इन सज्जन ने टेकनिकल टीम के गठन का प्रयास अवश्य किया होगा। पर मस्तिष्क की उपज को क्रियान्वित करना और बात है। इस कारण से, या उस कारण से या कई करणों से टीम नहीं जुटी।

मुझे अपने ऊपर बहुत ग्लानि हुई कि एक नवजवान के कमजोर कंधों में मैंने इतना बड़ा बोझ डाल दिया। इस उमर में जब उन्नति करने भावना होती है, उत्साह होता है। देश को भी आगे बढ़ाना होता है। और कहाँ मैंने यह एक इतना बड़ा काम जिससे न तो देश की उन्नति होती है और न ही अपना करिअर आगे बढ़ता है, इनको सौंप दिया।

लिहाजा मैंने उनका बोझ हलका कर दिया और उनके जिम्मे इतना ही काम सौंपा कि बस कलायन के वरिष्ठ कलाकारों की एक मीटिंग बुलाओ। उसी मीटिंग में सब मिल करक तय करेंगे।

उत्तर मिलते हैं

अरे भूल गया सर।
आज तो ऑफिस में सॉस लेने की फरसत भी नहीं मिली।
आज नहीं हो पायेगा, किसी शादी में जाना है।
कल मैं नहीं आ पाया सर, क्या बताऊँ बॉस ने रात के दस बजे तक छोड़ा ही नहीं। बाकी लोग आये थे क्या?
कल मैं कोलकाता जा रहा हूँ।
कभी सामना हो गया तो, जी हाँ आप समझ गये होंगे, वही हाई वोल्ट वाली जानलेवा मुस्कान और मैं चारों खाने चित।

Sunday, January 10, 2010

तुमने कुछ कहा होता - दूसरा और अंतिम भाग

एक दिन बड़े आत्मविश्वास के साथ मुस्कराते हुए सुमति मेरे पास आई और अपनी शादी का कार्ड दे कर चली गई। मैं आसमान से ऐसा गिरा कि किसी खजूर पर भी नहीं अटका। चारों खाने चित। और तब मुझे पता चला कि सुमति को खो कर मैं क्या खो रहा हूँ। चार दिन तक तो मेरे दिमाग में एक ही सवाल था कि यह क्या हो गया। पर अब पछताए होत क्या...।

मैं एक व्यवहारिक जीव हूँ। मैंने स्वयं को समझा बुझा लिया कि सुमति की शादी हो रही है तो अच्छा ही है। मैं उसका बालसखा हूँ, मुझे तो प्रसन्न होना चाहिए। जब मैंने ही मंशा नहीं दिखाई तो उसे क्या पड़ी थी।

आज जब मैं इस बारे मैं सोचता हूँ तो पाता हूँ कि अन्य सब लड़कियों में भी मैं सुमति को ही तलाशता था। कितना नासमझ था मैं, कितना अंधा था मैं। जो पास थी उसे ही मैं दूर दूसरे परिवेश में खोज रहा था। पता नहीं क्यों उन दिनों मुझे सुमति मेंं एक आकर्षणहीन सादापन ही दिखाई पड़ता था। हो सकता है यह मेरी नजर का धोखा हो। शायद मैं घूम फिर कर और दुनिया देख कर ही घर लौटना चाहता था। यदि मैं देखना चाहता तो वह सब ग्लैमर जो मैं बाहर खोजता फिर रहा था, सुमति में मौजूद था। लड़कपन वाली सुमति और युवती सुमति में मैंने कभी अंतर किया ही नहीं। अपनी कच्ची समझ के कारण एक समझदार, सुलझी हुई और शायद समर्पित लड़की को मैं देख ही नहीं पाया।

आजकल अवकाश के क्षणों में मैं यह भी सोचता हूँ कि क्या कमी थी उन लड़कियों में जिनसे मैंने किनारा कर लिया था। सभी तो अच्छी लड़कियाँ थीं। सबका अपना अपना व्यक्तित्व था। आज समझ में आता है कि वे मुझे क्यों नहीं जँचीं, क्यों कि उनमें कोई भी सुमति नहीं थी। मेरे बिना जाने मेरे गहन भीतर तो सुमति बैठी हुई थी।




खैर, सुमति की शादी हो गई। मैंने स्वयं को समझा लिया कि चलो जो हुआ अच्छा हुआ। इसी में संतोष कर लूँ कि सुमति सुखी है। पर मेरे अंदर शादी करने का उत्साह जाता रहा। अपने मन की क्या कहूँ, सुमति के प्रति अहसास हुआ भी तो कब? सुमति के जाने के बाद। और अपना यह प्यार अपना विकराल रूप लेकर मेरे सामने तब खड़ा हुआ जब मैं सुमति से मिलने गया था उसके घर। तब उसकी शादी हुए सालभर हो गया था।

बहुत बड़ा परिवार था। औरतों और बच्चों की भीड़ थी। उसी भीड़ में सुमति भी थी। बड़ी, मँझली आदि बहुओं के बीच वह खो कर रह गई थी। वह एक अमीर परिवार था। सब कुछ था पर वह नहीं था जो होना चाहिए था। मर्दों की दुनिया अलग थी और औरतों की अलग। पत्नी होनी चाहिए थी, इसलिए थी। केवल वंशवृद्धि के लिए। पति आजाद था, पर पत्नी सास श्वशुर जेठ जेठानियों के अधीन थी।

मुझे वहाँ घुटन महसूस हुई। आया था सुमति से मिलने पर वहाँ औरतों और बच्चों की रेलपेल में उससे बात भी नहीं हो पाई। वहाँ से वापस लौटते समय सुमति के साथ कुछ मिनटों का एकांत मिला तो मैंने उससे पूछा, 'खुश तो हो न सुमति?'

सुमति ने कोई उत्तर नहीं दिया। फिर पता नहीं क्या सोच कर मैंने उसे कुरेदा। मुझे आभास तो मिल ही गया था कि ऐसे माहौल में सुमति खुश नहीं हो सकती। मैंने उससे कहा, 'उस दिन जब तुमने पूरे आत्मविश्वास के साथ मुस्करा कर मुझे अपनी शादी का कार्ड दिया था तो जानती हो मुझे कितनी ठेस पहुँची...'

सुमति बिफर गई। उसने मेरी बात पूरी नहीं होने दी। 'उस तरह मुस्कराने के लिए मैं चार दिनों से अभ्यास कर रही थी शशि। मेरा भी आत्मसम्मान हो सकता है यह तुम्हें ध्यान नहीं आया।'

उसकी ऑखें डबडबा आईं। एक ढुलकते हुए आँसू को उसने अपनी तर्जनी में ले लिया।

'तुमने तो साले मेरा जीवन ही बरबाद कर दिया।' उसने कहा था।

उसकी वह छवि आज तक मेरी आँखों के सामने तैरती है। वह छवि धूमिल पड़े और उम्रेदराज में कुछ साल बचे हों तो शायद मेरी भी शादी हो जाय। जब तक वह छवि धूमिल नहीं पड़ती शादी करके दूसरी गलती करने का मन नहीं है।
समाप्त






Thursday, January 7, 2010

तुमने कुछ कहा होता - एक लघु कथा





मैंने शादी न करने की कसम नहीं खा रखी है। पर हुई नहीं है मेरी शादी अभी तक। अपना सुव्यवस्थित व्यवसाय है। रंग-रूप, कद-काठी औसत से बहुत अच्छे हैं। चालचलन साधारण मापदण्डों के हिसाब से दोष रहित ही है। मतलब यह कि अब तक शादी हो जानी चाहिए थी। सभी पूछते भी हैं कि शादी क्यों नहीं की अब तक, कब कर रहे हो, इत्यादि। पर पता नहीं है। मुझे कोई जल्दी नहीं है।

नहीं नहीं, ऐसा कहना गलत होगा। मुझे पता है कि मेरी शादी क्यों नहीं हो रही है। मैं अपने अंदर शादी के लिये कोई उत्साह नहीं पाता हूँ। पर किसी जमाने में शादी के लिये उत्साह अपनी चरम सीमा में था। उस जमाने में इतना उत्साह, इतनी उतावली रहती थी कि एक प्रेम प्रसंग सामाप्त होते न होते मैं दूसरे में फँस जाता था।

जब मैं छोटा था, यही दस बारह साल का रहा हूँगा जब एक परिवार हमारे पड़ोस में रहने के लिए आया। उस परिवार की बड़ी लड़की का नाम था सुमति। वह मुझसे तीन चार साल छोटी थी। वह मेरी सहपाठिन बनी। साथ पढ़ते खेलते हमलोग बड़े हुए। बड़े हुए तो पता चला कि हम दोनों के परिवार इच्छुक हैं कि हम दोनों की आपस में शादी हो जाय। मैंने इस बात पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था। हाँ, मुझे सुमति को चिढ़ाने का एक हथियार मिल गया था। तब चिढ़कर सुमति मुझे साला कह कर गाली देती थी। क्या होता था उसकी इस गाली में? मुझे घायल करने की नीयत? उलाहना? खिसियाहट? काश, मैंने जानने का प्रयत्न किया होता।

हमारी शादी नहीं हुई। मेरे कहने का अर्थ है हमारी एक दूसरे के साथ शादी नहीं हुई। आजकल मैं कभी कभी कारण ढूँढ़ने का प्रयत्न करता हूँ। जब दोनों परिवार इच्छुक थे तो शादी क्यों नहीं हुई? मेरे परिवार की ओर से शायद कारण था मेरी माँ की बीमारी। या मेरी बहन की शादी। या हो सकता है कारण हमारा आर्थिक अभाव रहा हो। या मेरी ओर से उत्साह का अभाव। बहुत संभव है सभी स्थितियाँ मिल का एक बहुत बड़ा कारण बन गई हों। पिता जी शायद सोचते थे कि लड़की तो बगल में है, सुविधा से शादी कर देंगे। पिता जी कहते तो शायद मैं बिना ना-नू किए सुमति से शादी कर लेता। पर पिता जी को सुविधा नहीं मिली। बहन की शादी के पश्चात् माँ ने बीमारी में दम तोड़ दिया। और माँ की बरसी से पहले ही पिता जी भी हमें छोड़ कर चल दिये। उस समय सुमति एम ए फायनल में थी और परीक्षा के लिए तैयारी कर रही थी। मैंने तो बी एस सी करने के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी थी। मैं एक व्यवसाय करने लगा था।

पिता जी के जाते जाते मेरा व्यवसाय जमने लगा था। तब मुझे उचित जीवन साथी की फिक्र हुई। सुमति तो थी ही पर मैं चाहता था कि मुझे कोई दूसरी लड़की भी मिले। यानी लड़की ने बचपन में आपकी बहती हुई नाक देखी हो तो यह आवश्यक नहीं कि उसी से शादी की जाय। फिर मेरा दुनिया का अनुभव ही क्या था। दुनिया से मेरा मतलब है लड़कियों का। मैं बचपन से एक ही लड़की को जानता था। उससे शादी करने के बाद पता चले कि दुनिया सुमति में ही नहीं सिमटी हुई है तो कैसा लगेगा! और भी लड़कियाँ हैं जो शायद सुमति से बहुत अच्छी निकलें। इधर उधर ताक झाँक करने में हर्ज ही क्या है। कोई नहीं मिली तो सुमति तो है ही।

तो इस ताक झाँक में मैं ललिता, अरुणा, बार्बी आदि के दौर से गुजरा। कहीं आभिजात्य आड़े आया तो कहीं धर्म। एक दो लड़कियों से तो मैंने स्वयं किनारा कर लिया था।

इस बीच मेरी सुमति से भी यदा कदा मुलाकात हो ही जाती थी। कभी मुझे लगता था कि वह मुझसे उतनी सहज नहीं है। या क्या यह मेरा भ्रम था? कभी लगता था कि हमारे बीच वही पुरानी सहजता है। या क्या यह भी मेरा भ्रम था?

मेरी लड़कियों से मित्रता के बारे में न कभी सुमति ने कुछ पूछा ओर न ही मैंने उसे इस संबंध में कुछ बताने की आवश्यकता समझी। मेरे मस्तिष्क के किसी कोने में यह विचार कर रहा था कि मुझे सुमति से शादी करनी चाहिये उधर सुमति और उसके परिवार का कुछ दूसरा ही प्रोग्राम बन रहा था जिसकी मुझे कोई खबर नहीं थी। खबर होती कैसे, उस समय तो मैं बार्बी की अधकटी जुल्फों में उलझने की चेष्टा कर रहा था।



कहानी बस थोड़ी और है। दूसरा और अंतिम भाग आगामी इतवार तक...