Thursday, February 25, 2010

एक सकारात्मक सोच

लोग कहते है कि मैं नेगेटिव हूँ। यानी हमेशा नेगेटिव सोचता हूँ। मैं कहता हूँ कि मैं जैसा भी हूँ ठीक हूँ। किसी और के लिये नहीं तो कम से कम अपने लिये तो ठीक ही हूँ। और मैं किसी से राय माँगने तो नहीं निकला हूँ न कि भैया मुझे बता दो कि मैं नेगेटिव हूँ या पाजिटिव। और सच कहूँ तो मुझे आज की भाषा के ये शब्द समझ में नहीं आते हैं। नेगेटिव, पाजिटिव। मानो आदमी आदमी न हो कर बैटरी का टर्मिनल हो गया हो।

हम तो भैया ऐसे ही हैं और ऐसे ही रहेंगे। नेगेटिव पाजिटिव जो कहना है कह लो, हमें कोई तकलीफ नहीं हो रही। हमारे पास आने से जब किसी का कुछ घट जाता है तो न आये वह हमारे पास। हम निराशावादी है तो वही सही। हम यह आशा तो नहीं कर रहे हैं न कि आप हमें आशावादी समझें।

फिर एक बार पूछता हूँ कि क्या होता यह नेगेटिव या पाजिटिव। हमारी सोच नेगेटिव है यानी नकारात्मक है तो ठीक है न।

सामने से तीखे सींग वाला बिगड़ैल साँड़ आ रहा है। अब आप सोचते रहें कि आपको कैसा सोचना है या कैसा व्यवहार करना है। नेगेटिव या पाजिटिव। नकारात्मक या सकारात्मक। आप आशावाद का सहारा लेंगे या निराशावाद का। किसका दृष्टिकोण अपनायेंगे अपना या साँड़ का। साँड़ आपको सींग मारेगा और आप घायल हो कर अस्पताल पहुँच जायेंगे। या साँड़ आपको देख कर मुस्करा कर आगे बढ़ जायेगा और आपको अस्पताल जाने की नौबत नहीं आयेगी।

हम तो भैया एक किनारे हट जायेंगे। अनजान जगह हो, व्यक्ति हो, स्थिति हो, मशीनरी हो तो हम तो पहले अपने बचाव का तरीका सोच लेते हैं।

निराशावादी होना भी बहुत लाभदायक होता है। आशा ही निराशा की जननी है। जब आप आशा ही नहीं करेंगे तो निराशा आपके पास फटकेगी कैसे।