Friday, May 28, 2010

ऐसा भी होता है

दिखने में दुबले-पतले लेकिन स्वस्थ। उम्र होगी 75 के आस पास। स्मार्टली मंच में आये। कुछ औपचारिक संबोधन के बाद आप बीती सुनाने लगे। उन्हीं के शब्दों में।

मुझे अपनी पत्नी की बहुत चिता लगी रहती है। अभी वह 72 साल की है। वैसे तो वह बहुत एक्टिव है। चलती फिरती है। ऐसी कोई विशेष व्याधि भी नहीं है। ब्लड प्रेशर 120 – 80 ही रहता है। पर पिछले एक साल से कान कम सुनने लगी है। डाक्टरों को दिखाने को कहो तो भड़क उठती है। कहती है कि मैं एकदम ठीक हूँ। इधर मुझे चिंता यह लगी रहती है कि कभी सड़क में गाड़ी का हार्न नहीं सुनाई पड़ा या बस की आवाज नहीं सुनाई पड़ी तो दुर्घटना हो सकती है।

मैंने डाक्टर के पास जाने की बहुत जिद की तो उसने मुझे धमकी दी कि ज्यादा डाक्टर-डाक्टर करोगे तो तुम्हारे कान के नीचे एक जड़ दूँगी।

मैं परेशान और किंकर्तव्यविमूढ़। तभी मुझे अपनी पहचान में एक इएनटी की याद आई। उसको खोज निकाला, फोन किया, अपनी परेशानी बताई। उसने सांत्वना दी कि चिंता करने की कोई बात नहीं है। आज कल ऐसे ऐसे इलाज निकले हैं जिनकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। उसने राय दी कि पत्नी को क्लिनिक में न ले आऊँ। सीधे उसके घर पर मिलूँ। वहाँ देखा जाएगा। पर मेरी पत्नी को पहले ही भनक लग गई। वह इतना भड़की, इतना भड़की कि मुझे डर लग गया कहीं सचमुच ही वह मेरे कान के नीचे जड़ न दे। और मुझे बहरा ही न कर दे।

मैं अपने उस इएनटी मित्र के पास गया। मैंने हथियार डाल दिये। मैंने कहा कि मैं अपनी पत्नी को इलाज के लिये उसके पास नहीं ला सकता। तब उसने मुझसे कहा कि मैं पता लगाऊँ कि कितनी दूर तक मेरी पत्नी साधारण वार्तालाप सुन सकती है। उसके बाद सोचेंगे कि क्या करना है। डाक्टर ने मुझे पूरी तरह हिदायत दी कि कैसे क्या करना है। लिहाजा जब पत्नी रसोई में थी मैं बाहर के दरवाजे के पास गया और पूछा
'लक्ष्मी आज खाने में क्या बना रही हो?'
उत्तर नदारद।

फिर मैं दस कदम आगे बढ़ा और वही सवाल दोहराया। उसने सुना ही नहीं। फिर उत्तर नदारद।

मैं आगे बढ़ा और रसाई के दरवाजे से कहा
'लक्ष्मी आज खाने में क्या बना रही हो?'
उत्तर नदारद।

मैं बहुत डर गया। हालत बहुत खराब लग रही थी। मैं उसके एकदम पास गया और पूछा 'लक्ष्मी आज खाने में क्या बना रही हो?'

लक्ष्मी चिल्ला कर बोली, 'क्या हो गया है तुमको, बहरे हो गये हो क्या। वही सवाल बार बार क्यों पूछ रहे हो। तीन बार तो बता चुकी हूँ कि आज खाने में बिसिबेले भात है।

फिर उन सज्जन ने अपने कान से सुनने वाला यंत्र निकाला और कहा प्राब्लम लक्ष्मी के साथ नहीं मेरे साथ थी।

वहाँ दो सौ आदमियों की भीड़ थी। एक क्षण तो सन्नाटा रहा, अगले क्षण हॅसी का जो दौरा पड़ा लगता था छत गिर जाएगी।

Sunday, May 23, 2010

हम आपको तकलीफ देना नहीं चाहते

जावेद साहब अपने किसी काम से बेंगलोर आये हुए थे। उम्मीद कर रहा था कि आजकल में मुझसे मिलने आयेंगे। फोन करके उन्होंने बताया कि वे कल का लंच मेरे साथ करेंगे क्यों कि लंच के बाद ही उन्हें ट्रेन पकड़नी है। नहीं तो मिलना नहीं हो पायेगा। मैंने कहा कि आप आइए। लंच हमारे साथ कीजिए। और फिर मैं उनको स्टेशन तक छोड़ दूँगा।

'मैं कंपनी की कार में आऊँगा। इसलिए आपको तकलीफ नहीं दूँगा। और देखिए खाने में मेरे लिये कुछ स्पेशल करने की जरूरत नहीं है। नहीं तो मैं नाराज हो जाऊँगा।'

'अरे आप आइए तो सही।'

'मैंने इसलिए कहा कि असल में हमारा मकसद तो आपस में मिलना है। समय नहीं निकाल पाया इसलिए लंच में मिल रहे हैं। ऐसे में मैं आपको बेकार तकलीफ नहीं देना चाहता।'

'जावेद साहब कोई तकलीफ नहीं होगी। इतने दिनों बाद तो हम मिल रहे हैं। गप्पें मारेंगे और खाना साथ में खायेंगे।'

'जरूर जरूर। पर आप तो रोजमरर्ा खाते हैं वही बनाइएगा।'

'ठीक है वही बनायेंगे आप आइए तो सही।'

मैं आपको बता दूँ जावेद साहब एक खब्ती इनसान हैं। कब कौन सी खब्त उन पर सवार होगी आप कह नहीं सकते।

अगले दिन सुबह सुबह उनका फोन आ गया। 'मैं ग्यारह बजे पहुँच जाऊँगा। देखिए जो घर में है वही बनाइएगा। कुछ स्पेशल बनाने की जरूरत नहीं। नहीं तो में नाराज हो जाऊँगा।'

मैंने उनको यकीन दिलाया कि कुछ भी स्पेशल नहीं बनेगा उनके लिये। वे ग्यारह बजे आये। आते ही बोले, 'देखिए आपने यह बहुत गलत काम किया। रसोई से पकवानों की खुशबू आ रही है। आपने भाभी जी से कुछ स्पेशल बनाने को कहा होगा। इसकी क्या जरूरत थी। हमारा मकसद तो मिलना था न।'

आ गया मुझे भी गुस्सा। 'दोपहर खाने का समय हो रहा है। इस समय हम लोग पानी पीकर घुटने पेट में डाल कर नहीं बैठे रहते हैं। रसोई में कुछ बना कर खा लेते हैं। ऐसे में कोई मेहमान आ गया तो हम रसोई बनाना नहीं छोड़ते। आज रविवार है, कुछ न कुछ तो खास बनता ही है। ऐसा एकदम न समझिएगा कि यह सब हम आपके लिये कर रहे हैं। यह सब तो हमने अपने लिये बनाया है। अब जब आप आ गये हैं तो आपको भी वही परोसेंगे न। आपने कहा था कि आपके लिये स्पेशल न बनाया जाय सो हम नहीं बना रहे हैं। यह खाना आपको स्पेशल लगे तो कोई बात नहीं आप नमक के साथ भात खा लीजियेगा।'

इस बात को कई साल बीत गये हैं। अभी उनकी लड़की बेंगलोर तबादले में आई है। उसने फोन किया 'अंकल मैं संडे को आऊँ?'

'हाँ हाँ आ आजाओ। दिन का खाना हमारे साथ ही खाना।'

'ठीक है अंकल। आंटी से कहिएगा कि वे मेरे लिये कुछ भी स्पेशल न बनायें। नहीं तो मैं गुस्सा हो जाऊँगी।'


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Tuesday, May 11, 2010

विषकन्या




कुछ दिन पहले मैंने एक लघु उपन्यास 'विषकन्या' की रचना की थी। उपन्यास में रहस्य और रोमांच तो है ही, साथ ही मैंने हास्य का पुट देने का प्रयत्न किया था। मुलाहिजा फरमाइये

कार में जिन्दा लाश

बेला को इन्तजार करते चालीस मिनट हो गए थे। एक तो खड़े खड़े उसके पाँव दुख रहे थे। ऊपर से साढ़े दस बज गए थे। सामने रेस्तराँ खुल गया था और आते जाते लोग उसे घूर रहे थे। पर विक्टर का कहीं नामोनिशान नहीं। यह बेला के स्वभाव में नहीं था कि वह किसी का एहसान ले। जिन्दगी में इतना अनुभव तो उसे हो ही गया था कि एहसान एक बोझ होता है जो कभी सरल रिश्ते को भी जटिल बना सकता है। पर विक्टर की बात कुछ और थी। विक्टर उसका पार्टनर था। फिर उसका घर ऐसी जगह था कि आफिस जाने के लिए दो बसें बदलनी पड़़ती थीं। अगर कभी सीधी बस मिल भी गई तो वह कभी भी समय से नहीं पहुँचाती थी। विक्टर के पास कार थी। जब उसने कहा कि आज वह सीधे आफिस जा रहा है इसलिए वह उसके साथ कार में आफिस आ सकती है, तो उसने हामी भर दी। बस में धक्के खाने से तो अच्छा था कि वह विक्टर का साथ झेल ले। विक्टर कभी समय से पहुँचे तो, उसके लेने के लिए। आज से अब और नहीं करेगी वह विक्टर का इंतजार। गुस्से में आग बबूला हो कर वह टैक्सी स्टैंड की ओर मुड़ी ही थी कि विक्टर अपने छकड़े पर आ पहुँचा।

'पैंतालीस मिनटों से मैं यहाँ पर खड़ी हूँ। तुमने इतना भी नहीं सोचा .......!'

'शांत बेला, शांत। लोग देख रहे हैं।'

'देखते हैं तो देखने दो। हद होती है! तुमने मुझे पैंतालीस मिनट सड़क पर खड़ा रखा। खड़े-खड़े पाँव दुख गए। आने जाने वाले लोग घूर रहे हैं।'

'तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि लोग तुम्हें घूर रहे हैं। तुम्हें मेरा शुक्रगुजार होना चाहिए कि मैंने तुम्हें यह मौका दिया कि लोग तुम्हें देखें। तुम्हें घूरें।'

'विक्टर तुम अपनी बकवास बंद करो।' बेला ने लगभग चीखते हुए कहा।

'अरे अरे क्या गजब कर रही हो। सड़क पर इस तरह चिल्लाओगी तो लोग समझेंगे कि मैं तुम्हें छेड़ रहा हूँ।'

'मेरी बला से। बल्कि मैं तो खुश हूँगी अगर लोग ऐसा समझें और तुम्हें जूते चप्पलों से पूजें।'

'ठीक है भई। तुम्हारा गुस्सा भी ठीक है। सॉरी, आने में देर हो गई।'

'देर हो गई! पैंतालीस मिनट!! क्या बहाना बनाकर आए हो?'

'बहाना नहीं, ठोस कारण है। नब्बे किलो तो होगा ही।'

'क्या बक रहे हो?'

'जिसके कारण देर हुई उसका वजन बता रहा था। इधर देखो।' कह कर उसने कार की पिछली सीट की ओर इशारा किया।

बेला ने देखा और उसकी आँखें फट पड़ी। मुँह स्प्रिंग लगे बक्से के ढक्कन की तरह खुल गया।

'मुँह बंद करो।' विक्टर ने कहा।

'लाश!'

'लाश नहीं बेहोश है।'

'कौन है यह?' बेला ने पूछा।

'मुझे क्या मालूम?' लापरवाही-सी दिखाते हुए विक्टर ने कहा।

'तुम्हारे ऐसा कहने का क्या मतलब है विक्टर! तुम्हारी कार की पिछली सीट में एक आदमी बेहोश पड़ा है। इस बेहोश आदमी के साथ तुम मुझे पिकअप करने आ रहे हो। मैं पूछती हूँ तो कहते हो कि मुझे क्या मालूम। आखिर क्या जताना चाहते हो तुम! तुम्हारी प्राब्लम क्या है विक्टर?' बेला ने कहा।

कुछ आने जाने वाले लोग रुक कर कार की पिछली सीट पर पडे़ व्यक्ति को देखने लगे थे।

'चलो पहले कार में बैठो, नहीं तो यहाँ मजमा लग जाएगा।' विक्टर ने कहा।

'कौन है यह?' कार चल पड़ी तो बेला ने पूछा।

'मुझे नहीं मालूम।' विक्टर ने उसी लापरवाही से कहा।

'विक्टर, कार रोको।' बेला ने आदेश दिया।

'क्यों?' विक्टर ने पूछा।

'मैं तुम्हारे साथ नहीं जाना चाहती।'

'पर क्यों?'

'एक तो तुमने इतना इंतजार करवाया और अब पहेलियाँ बुझा रहे हो? ढंग से बात नहीं कर सकते हो? मेरी ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं है कि मैं तुम्हें झेलती रहूँ।

पूरा उपन्यास यहाँ उपलब्ध है

http://www.abook2read.com/vishkanya.html

Sunday, May 9, 2010

जरा ऊँचे स्वर में बोलिये

मुझमें एक व्याधि है, वह यह कि जब आप मुझसे बहुत धीमे स्वर में बात करते हैं तो मेरी समझ में नहीं आता है। सुनाई पड़ता है कि आप कुछ कह रहे हैं पर समझ में नहीं आता है कि आप क्या कह रहे हैं। यह हो सकता है आपको मामूली बात लगे पर यह एक भयंकर समस्या है।

जब छोटा था तो समझ में ही नहीं आता था कि सब मेरा मजाक क्यों उड़ाते हैं। बातें मेरी लोगों की समझ में क्यों नहीं आती हैं? ऐसा क्या है जो औरों में है और मुझमें नहीं है। इस ऊँचा सुनने की व्याधि ने मुझे अंतर्मुखी बना दिया था।

पता नहीं कब, पर एक दिन मेरी समझ में आ ही गया कि मेरी समस्या क्या है। मैंने समाधान यह निकाला कि समझ में नहीं आये तो पूछो। उसी बात को दूसरी बार दोहराने में लोग बहुधा अपना स्वर ऊँचा कर लेते हैं।

एक स्थिति का जायजा लीजिये। आपको ऊँचा सुनने की आदत है। आपका बॉस आपको बुलाता है। बहुत धीमे स्वर में आपको कुछ निर्देश देता है। आपको सुनाई तो पड़ा कि आपसे कुछ करने के लिये कहा गया है, पर यह एकदम पल्ले नहीं पड़ा कि क्या कहा गया। यह स्थिति घर में पत्नी के साथ आ सकती है, आफिस में आ सकती है। मित्रों की बैठक में आ सकती है अंतरर्ाष्ट्रीय सम्मेलन में आ सकती है। कवि सम्मेलन में आ सकती है। हर उस जगह आ सकती है जहाँ लोगों ने ठान रखी हो कि वे आपसे धीमे स्वर में बात करेंगे। मधुमक्खी की तरह भनभनाहट वाले स्वर में।

तो ऐसे में क्या करेंगे आप। मैं तो जैसा कि मैंने कहा है मैं आव देखता हूँ न ताव, सीधे-सीधे पूछ बैठता हूँ कि कृपया आपने मुझसे जो कहा उसे ऊँचे स्वर में दोहराइये क्यों कि मैं समझा नहीं आपने क्या कहा।

मैंने तो एक रणनीति ही बना ली है। बस ऐलान कर देता हूँ कि मैं ऊँचा सुनता हूँ। कुछ लोग विश्वास कर लेते हैं कि मैं सचमुच ऊँचा सुनता हूँ। कुछ नहीं नहीं भी करते। ऐसे एलान में बचने का निकास रहता है। जैसे, आपने ऐसा कहा था क्या, मैंने तो नहीं सुना। आपको तो मालूम ही है कि मैं ऊँचा सुनता हूँ।

कुछ लोग तो आदतन नीचे स्वर में बोलते हैं। उनको ऊँचा बोलने के लिये कहा जाय तो ऊँचे स्वर में बोलने लगेंगे पर कुछ समय बाद ही फिर अपने उसी पुराने धीमे स्वर में आ जाते हैं। उनको बार बार ऊँचा बोलने के लिये टोकना भी अच्छा नहीं लगता, विशेष कर जब आपको छोड़ कर सभी लोग बड़ी तन्मयता से उन्हें सुन रहे होते हैं। आप कितनी बार उन्हें टोकेंगे!

कुछ लोग यह जानते हुये भी कि आप ऊँचा सुनते है, ऊँचा नहीं बोलेंगे। उनका अहम् इतना बड़ा होता है कि उन्हें लगता है कि उनके ऊँचा बोलने से उनके अहम् में क्रैक पड़ जायेगा। ऐसे लोगों से सावधान रहना पड़ता है। भग्न अहम् वाले लागे आपके स्वस्थ्य के लिये हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं।

ऊँचा सुनने वालों की एक और समस्या है। औरों की हो न हो, पर मेरी है। वक्ता धीमे स्वर में बोल रहा है और आपको बात समझ में नहीं आ रही है। तो सुनने वाले का ध्यान भटकेगा या नहीं। जैसे किसी मीटिंग में, वक्ता आपको समझा रहा है कि किसी विशेष समस्या का कैसे सामना करना चाहिये और आप वक्ता के बगल में बैठी सुंदरी को कल्पना के घोड़े उड़ाये ले जा रहे हैं।

खैर अपनी इस समस्या के साथ काफी वक्त गुजार लिया है। अब तो हम बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि हम सठिया गये हैं इसलिये आप हमसे साफ साफ और ऊँचे स्वर में बोलिये।

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