Wednesday, March 23, 2011

प्रेमिका संवाद -2

प्रेमिका संवाद -2


'सरला, तुम यहाँ!' उसने कहा।

'यहाँ मेरी चचेरी बहन रहती है। मैं उसी के पास आई हूँ। तुम यहाँ कैसे?' सरला ने पूछा। उसने सोचा था कि उसने अपने ऊपर काबू पा लिया है। कितनी भूल कर रही थी वह। प्रेम को देखते ही वह प्रेम विह्वल हो उठी है। क्यों आया है प्रेम यहाँ? यदि प्रेम इसी तरह उसे हर गली-नुक्कड़ पर मिलता रहेगा तो कैसे वह उसे अपने जीवन से दूर कर पायेगी। दूर तो उसे रहना ही था। उसे पूरा विश्वास था कि उसका निर्णय उचित है। प्रेमाशिष जैसे दिलफैंक व्यक्ति के साथ रह कर बार-बार मरने से तो यही अच्छा था कि जी कड़ा कर के उसके जीवन से ही दूर चले जाओ। पर प्रेम ऐसा भी तो नहीं करने दे रहा है।

'मैं अपने मित्र मदन के यहाँ कुछ दिन रहने आया हूँ। तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी याद...'

'प्रेम, अब ऐसी बातें मत करो।' उसे बीच में ही रोक कर सरला ने कहा।

इतने में, जिस ओर से सरला दौड़ कर आई थी, उसी ओर से एक व्यक्ति बड़े कष्ट से दौड़ता हुआ उनके पास पहुँचा। और मुँह खोल कर हाँफने लगा। वह एक साधारण कद का दुबला-पतला व्यक्ति था। गालों की हड्डियाँ आगे को आयी हुई थीं, जिससे आँखें धँसी हुई प्रतीत होती थीं। वह बोलने योग्य हुआ तो उसने कहा,

'तुम बहुत तेज दौड़ती हो सरो। मैं तो हाँफते-हाँफते बेहाल हो गया।'

'मैंने तुम्हें साथ दौड़ने के लिये तो नहीं कहा था, प्रसाद।' सरला ने कहा।

'यह कौन है?' उसने प्रेम की ओर देखते हुए पूछा।

'मेरे मित्र हैं प्रेमाशिष। प्रेमाशिष, इनसे मिलो, इनका नाम है प्रसाद।' सरला ने परिचय कराया।

'मित्र?' प्रसाद ने कहा।

'क्यों क्या तुम्हें कोई आपत्ति है?' सरला ने प्रसाद को घूरते हुए ऊँची आवाज में कहा।

'नहीं-नहीं मुझे कोई आपत्ति नहीं है।' प्रसाद ने जल्दी से कहा।

'अच्छा प्रेम, नमस्ते।' कह कर सरला ने हाथ जोड़े और दौड़ती हुई आगे निकल गई।

सरला के जाने के बाद प्रसाद ने प्रेमाशिष को घूरा और कई क्षणों तक घूरता रहा। प्रेमाशिष को समझ नहीं आया, कि वह प्रसाद का क्या बनाये अर्थात् उसे किस शीर्षक के नीचे ले, शत्रु,मित्र या तटस्थ। हालाँकि सरला ने उससे संबंध विच्छेद कर लिया था। अँगूठी वापस करके किसी प्रकार की आशा की कोई गुंजाइश नहीं रखी थी। फिर भी उसे आशा थी क्योंकि उसका प्यार सच्चा था और उसका मन निर्मल। सरला से मिल कर अभी उसने अपनी नीति निर्धारित कर ली कि, सरला को रिझाओ। यह भी आवश्यक हो गया था कि वह सरला से मिलने-जुलने वाले लोगों के साथ कूटनीति का सहारा ले कर अच्छा व्यवहार रखे। प्रसाद में ऐसी कोई बात नहीं थी जो लोगों को उसके प्रति अच्छे व्यवहार के लिये उकसाए। दुबला-पतला शरीर, गोरे कव्वे-सा चेहरा और खनकती आवाज। ऊपर से तुरर्ा यह कि वह उसे फिल्मी खलनायक के अंदाज में घूर रहा था। खलनायक के अंदाज में ही उसने कहा,

'तुम्हारे बारे में सुन चुका हूँ। सरला ने तुमको तुम्हारी दो टके की अँगूठी वापस कर दी है। अब क्या लेने आये हो?'

प्रेमाशिष इस आकस्मिक हमले के लिये तैयार नहीं था। वह मुँह बाये प्रसाद को देखता रहा।

'देखो, सरला और मेरे खानदान में कई पीढ़ियों से संबंध है। सरला की शादी मेरे साथ होने वाली है। मैं तुमको आगाह किये देता हूँ, कोई ऐसी बेवकूफी मत करना जो तुम्हारे स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो।' इतना कह कर प्रसाद अकड़ कर उसी ओर चला गया जिस ओर सरला गई थी।

प्रेमाशिष का दिल तो किया कि वह प्रसाद की जबान खींच कर, उसी के हाथ में रख कर, उससे पूछे कि अब बोलो क्या बोलते हो? पर वह अपनी ही निर्धारित की हुई नीति के अनुसार आचरण करने के लिये वाध्य था। वह भी वहॉ से उठ कर जाने की सोच ही रहा था कि उसने देखा एक सुंदर, सुडौल, लड़की दौड़ती हुई उसी की ओर आ रही थी। दौड़ने के श्रम से उसकी साँस तेज चल रही थी तथा उसके चेहरे पर लालिमा छलक आई थी। वह उसकी ओर देख कर मुस्कराई और मुस्कराते हुए आगे निकल गई।

सुबह-सुबह तरुणाई की अरुणाई लिये जब कोई सुंदर चेहरा दिख जाय तो जीवन में कड़ुवाहट के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता है। जीवन के प्रति लगाव बढ़ जाता है। किसी शायर ने कितना गलत कहा है कि अच्छी सूरत पर लोग बुरी नजर ही डालते हैं। यह कहना गलत होगा कि प्रेमाशिष बहुत प्रसन्नचित्त हो कर घर की ओर गया। हाँ, यह कहा जा सकता है कि प्रसाद ने उसके मन में जो कड़ुआहट घोल दी थी, सुंदर तरुणी की आकर्षक मुस्कान ने उसका असर कम कर दिया था।


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अभी और है। आगे कल शाम तक

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