Sunday, October 23, 2016

प्रजातंत्र  का धर्म और धर्म का प्रजातंत्र


आगे बढ़ने से पहले प्रजातंत्र  और धर्म इन दोनों शब्दों को समझना आवश्यक है। प्रजातंत्र का 
शाब्दिक अर्थ है प्रजा का तंत्र। तंत्र का यहाँ व्यापक अर्थ है। याने एक ऐसी व्यवस्था जो प्रजा ने 
स्वयं के लिये निर्धारित की हो। एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें प्रजा अपना ‘राजा’ खुद चुनती है। राजा यहाँ राजा न हो कर प्रजा यानी जनता का प्रतिनिधि होता है। जनता के आदेश से जनता का शासक बनता है।  अब्राहम लिंकन ने प्रजातंत्र को इस तरह परिभाषित किया था,  जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा शासन। प्रजातंत्र में कानून की नजर में सब बराबर हैं। सबको समान रूप से अभिव्यक्ति की आजादी है। विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, अल्पसंख्यकों को समानाधिकार प्राप्त हैं।  शासनतंत्र घोषितरूप से धर्मनिरपेक्ष रहता है। पर शासनतंत्र धर्मनिरपेक्ष रह पाता है या नहीं या किस सीमा तक धर्मनिरपेक्ष है, यह इस पर निर्भर करता है कि प्रजातंत्र कितना विकसित हुआ है या कितना परिपक्व है।
प्रजातंत्र के कई स्वरूप हैं, पर मूल सिद्धांत वही है, जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा शासन। प्रजातंत्र में साधारणतया प्रतिनिधि एक निश्चित अवधि के लिये जनता द्वारा निर्वाचित होते हैं और उन्हें जनहित हेतु नीतियाँ बनाने की स्वतंत्रता होती है। नियमित अंतराल पर चुनाव प्रतिनिधियों पर अंकुश का काम करता है। जो देश-समाज के लिये कुछ करना चाहते हैं वे चुनाव द्वारा शासन तंत्र में आते हैं। उनका अगली बार चुना जाना या न चुना जाना इस पर निर्भर करता है कि जनता उनके कार्य की गुणवत्ता को कैसे परखती है। ध्येय से भटकने वाले प्रतिनिधियों को जनता अपने मतदान से सत्ता से बाहर कर सकती है।

अब आते हैं धर्म की व्याख्या पर। एक धर्म  होता है मानवोचित व्यवहार से जुड़ा हुआ और एक होता है ईश्वरीय आस्था से जुड़ा हुआ। व्यापक अर्थ में ईश्वरीय आस्था से जुड़ा हुआ धर्म मानवोचित व्यवहार से जुड़े हुए धर्म से भिन्न नहीं हो सकता। पर चूँकि ईश्वर की मान्यताएँ अलग-अलग हैं और उनसे जुड़े धर्म अलग-अलग है. तो धर्म की परिभाषा स्पर्धा की भावना में लिप्त हो कर संकीर्ण हो जाती है।
पद्मपुराण में धर्म की व्याख्या इस प्रकार है,   
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। 
अर्थात धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये। इस परिभाषा के अंतर्निहित अर्थ का अनुगमन किया जाये तो प्रजातंत्र  का धर्म बनता है –
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।
अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।  विस्तार में न जा कर यहाँ यह कहना श्रेयस्कर होगा कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में सभी अपने-अपने धर्मों का अनुसरण करते हुए, सुख शान्ति से जीवनयापन करते हुए उन्नति की ओर अग्रसर हों। यही प्रजातंत्र  का धर्म है। जब हम प्रजातंत्र के धर्म की बात करते हैं तो हम मानवोचित व्यवहार से जुड़े हुए धर्म की ही बात कर रहे होते हैं।

अब आते हैं धर्म के प्रजातंत्र  की ओर। यहाँ पर मानवोचित व्यवहार से जुड़ा हुआ धर्म यानी प्रजातंत्र  का धर्म गौण हो जाता है और ईश्वरीय आस्था से जुड़ा हुआ धर्म मुख्य धारा में आ जाता है। कहा जा चुका है कि प्रजातंत्र की व्यवस्था के अनुसार प्रजातंत्र में विभिन्न धर्मावलंबियों को समानाधिकार मिलता है। एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में सभी धर्म के अनुयायी अपने-अपने धार्मिक नियम-सिद्धांतों का अनुकरण करने के लिये स्वतंत्र हैं। प्रजातंत्र  में एक  कमजोरी यह है कि जनता का प्रतिनिधि अक्सर गुणवत्ता नहीं वरन् जाति और धर्म के आधार पर चुना जाता है जिससे अवांछनीय तत्व सत्ता में आ जाते हैं। ऐसे तत्व अपनी साख बनाये रखने के लिये अपनी प्रजा को अँधेरे में रखते हैं। धर्मनिरपेक्षता का हवाला दे कर धर्म की कुप्रथाओं को हवा देते हैं और उनकी उन्नति नहीं होने देते। यहाँ तक कि ऐसे सत्ता के लोलुप, धर्म को राष्ट्र से बड़ा बना देते हैं। जहाँ किसी जाति या धर्मानुयायियों का उत्थान नहीं होता वहाँ घेटो (ghetto) मानसिकता पनपती है जो उन्नति के द्वार बंद कर देती है। जहाँ प्रजातंत्र  का धर्म सुख समृद्धि लाता है वहीं धर्म का प्रजातंत्र  अराजकता फैलाता है।

धर्म का उद्देश्य वस्तुतः आचरण की शुचिता का उन्नयन करना है जिसके लिये ईश्वरीय गुणों की परिकल्पना को अनुसरण योग्य आदर्शों के रूप में स्वीकार किया जाता है। अतः यह सर्वजन हिताय है। प्रजातंत्र का धर्म भी सर्वजन हिताय है। स्पष्ट है कि धर्म और प्रजातंत्र के मूल उद्देश्यों में कहीं टकराव नहीं है। प्रजातंत्र तो तब कुत्सित हो जाता है जब तथाकथित धर्म की स्वार्थपरक एवं संकुचित परंपराएँ जनतंत्र के निहितार्थ को  नियमित करने लगती हैं।
धर्म और प्रजातंत्र दोनों स्वयं में दोषमुक्त हैं परंतु विडंबना है कि मनुष्य मात्र जिनके लिये इनका आविर्भाव हुआ है इनके अनुगमन में पर्याप्त सावधानी नहीं बरतते। सत्य निष्ठा से किसी भी धर्म का पालन निर्वाण की ओर ले जाता है। इसी प्रकार प्रजातंत्र के आदर्शों का पालन एक सुखी और सम्पन्न समाज की रचना करता है। परंतु जिन्हें उनके निर्वहन का उतरदायित्व सौंपा गया है, उनको चारित्रिक दृढता से सिद्धांतों का अनुपालन करना चाहिए तभी धर्म एवं प्रजातंत्र वास्तव में एक दूसरे के पूरक होंगे न कि शत्रु।
समाप्त



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